Friday, August 22, 2014

शायर क़तील शिफाई से देवमणि पाण्डेय की मुलाक़ात

कथाकर धीरेन्द्र अस्थाना, कवि देवमणि पांडेय और शायर क़तील शिफ़ाई (मुम्बई 1995)

              मैं तुझको भूल के ज़िंदा रहूँ ख़ुदा न करे

मरहूम शायर क़तील शिफाई ऐसे लोकप्रिय शायर हैं जिनके कलाम ग़ज़ल गायकों के ज़़रिए दुनिया के कोने कोने में पहँचे और पसंद किए गए। क़तील शिफाई के शेर हमारे मुल्क में भी इतने अधिक लोकप्रिय हुए कि काफी़ लोग उन्हें हिंदुस्तान का ही शायर समझ लेते हैं। इसमें क़तील का कोई कु़सूर नहीं। दरअसल उनका जन्म अविभाजित हिंदुस्तान में ही हुआ। बंटवारे के बाद वे पकिस्तान के हिस्से में पड़ गए।

सन् 1995 में जश्न- ए- मजरूह सुलतानपुरी कार्यक्रम में शिरकत करने के लिए क़तील साहब मुम्बई तशरीफ़ लाए थे। नेहरू सेंटर में आयोजित इस जलसे और मुशायरे में उन्होंने शिरकत की। 77 साल की उम्र में वो जवां दिलों की धड़कन बढ़ाने वाली ग़ज़ल पेश कर रहे थे-
गुस्ताख़ हवाओं की शिकायत न किया कर / उड़ जाए दुपट्टा तो धनक ओढ़ लिया कर।

मुम्बई के शायर क़तील राजस्थानी ने जब इस लोकप्रिय शायर से हमारा तआरूफ़ कराया तो वे इस तरह दिल खोलकर मिले जैसे हमारी वर्षों की जान पहचान हो। अगले ही दिन सुबह हम खार इलाक़े की संगीता बिल्डिंग के टेरेस पर बैठे ज़िंदगी और शायरी पर गुफ़्तगू कर रहे थे । हमने पहले उनसे यही सवाल पूछा-

क़तील साहब, आप प्यार-मुहब्बत पर बहुत लिखते हैं। क्या एक बार की मुहब्बत आप से इतना सारा लिखवा रही है ?

क़तील साहब के चेहरे पर एक स्वाभाविक मुस्कान थिरक उठी- लोग फैशन के तौर पर भी रूमानी शायरी करते हैं मगर उसमें कोई जान नहीं होती। मैंने तो हमेशा तजर्बे से गुज़रकर लिखा। मेरी रूमानी शायरी मेरी आपबीती है। मैंने एक से ज़्यादा बार मुहब्बत की है। अभी भी कर रहा हूँ मगर इस वक़्त मैं जो मुहब्बत कर रहा हूँ वह मेरी आख़िरी मुहब्बत है। पहले की मुहब्बतें ज़्यादातर ट्रेजिक रहीं। अब मेरे चारों और खु़शी ही खु़शी बिखरी हुई है। आमतौर पर मुहब्बत का अंजाम ट्रेजिक ही होता है। मगर-

कैसे न दूँ क़तील दुआ उसके हुस्न को
मैं जिसपे शेर कहके सुख़नवर बना रहा

क़तील साहब की शायरी की भाषा अवाम की भाषा है। उसमें कहीं हिंदी-उर्दू की दीवार नहीं नज़र आती। यही कारण है कि उनकी रचनाएं शहर ही नहीं दूरदराज के गाँव तक पहुँची और वहाँ भी लोकप्रिय हुईं। मिसाल के तौर पर चाँदी जैसा रंग है तेरा सोने जैसे बाल, मोहे आई न जग से लाज,उफ् वो मरमर का तराशा हुआ शफ़्फ़ाफ़ बदन / देखने वाले तुझे ताजमहल कहते हैं आदि रचनाएँ देखी जा सकती हैं । बातचीत में हमारे बीच औपचारिकता की कोई दीवार नहीं थी। इसलिए हमने क़तील साहब से एक मजा़क कर दिया-

क़तील साहब, आप कम पढ़े लिखे हैं इसलिए सरल भाषा में लिखते हैं अथवा आपने जानबूझकर अपनी शायरी की भाषा ईजाद की है ?
क़तील साहब के चेहरे पर मुस्कान खेलने लगी। बोले- भाई मैं अकादमिक रूप से सचमुच कम पढ़ा लिखा हूँ। सिर्फ़ हाईस्कूल तक। मगर उसके बाद मैंने बहुत पढ़ाई की। मैं उर्दू-फा़रसी के शब्दों को लेकर इतनी कठिन शायरी लिख सकता हूँ कि किसी की समझ में न आए। मगर मैं जनता की जु़बान में शायरी करता हूँ ताकि वह जनता की समझ में आए। इसीलिए मुझे जनता का बहुत प्यार भी मिला। दरअसल मैंने बचपन में ग़ज़लें पढ़ने का शौक पाला। अगर उस कच्ची उम्र में शायरी समझ में न आई होती तो मैं शायर ही नहीं बनता। इसलिए खु़द-ब-खु़द मेरी शायरी एक ऐसी सहज भाषा में ढलती चली गई जिसे ज़्यादा से ज़्यादा लोग समझ सकें।

प्यार करने को जो माँगा और हमने इक जनम
ज़िंदगी ने मुस्कुराकर हमको मर जाने दिया


शायर क़तील शिफ़ाई के साथ कवि देवमणि पांडेय

क़तील साहब ने अचानक अपने बचपन की किताब खोल दी। मैंने सोचा अब इन्हें बिना टोके हुए सिर्फ़ सुनना बेहतर है। उन्होंने बचपन की किताब का पहला वरक़ खोला तो वहाँ फ्रंटियर पाकिस्तान की सूबा सरहद पर स्थित एक हराभरा क्षेत्र हरीपुर हजारा नज़र आने लगा। इस हरे भरे मंज़र के बीच उन्हें अपना बचपन साफ़-साफ़ दिखाई पड़ रहा था। वहाँ हरियाली, फूल और लोकगीतों की भरमार है। इसी से लोग उसका नाम हरीपुर समझते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि इसे शहीद हरीसिंह नलवा ने आबाद किया था। उन्हीं के नाम पर इसका नाम हरीपुर हजारा पड़ा। इस गाँव में 25 दिसंबर 1919 को क़तील शिफाई का जन्म हुआ। वहीं सरकारी हाईस्कूल में उनकी शिक्षा हुई। छात्र जीवन में ही शायरी में दिलचस्पी लेने लगे। अपने इस शौक़ के चलते वे विद्यालय की सांस्कृतिक संस्था बज़्म-ए-अदब के सचिव बन गए। सारी सांस्कृतिक गतिविधियों की ज़िम्मेदारी क़तील के कंधों पर आ गई। उस समय तक वहाँ के लोग मुशायरे के नाम से भी वाकिफ़ नहीं थे। क़तील ने वहाँ मुशायरा शुरू करवाया।


क़तील शिफाई एक दौलतमंद परिवार से तआल्लुक़ रखते थे। हाईस्कूल पास करने पर पिता ने पढ़ाई बंद करवा दी। उनका कहना था कि जब घर में दौलत मौजूद है तो पढ़कर क्या होगा? लेकिन पैतृक व्यवसाय क़तील को रास नहीं आया। कुछ साल में ही उन्होंने सब कुछ गँवा दिया।

शायरी में दिलचस्पी के कारण पढ़ने की धुन सवार हुई। क़तील शिफ़ाई कॉलेज तो नहीं जा सके, मगर उन्होंने घर पर ही उर्दू-फा़रसी का सारा क्लासिक पढ़ डाला। विश्व की चर्चित कृतियों के अंग्रेजी अनुवाद पढ़े। वे खु़द कॉलेज भी नहीं जा सके, लेकिन उन पर पी.एच.डी. की गई। क़तील शिफ़ाई को इस बात का अफ़सोस था कि उन्हें आला तालीम हासिल नहीं हुई। दौलत के गु़रूर में पिता ने पढ़ाई बंद करवा दी। महज 17 साल की उम्र में उनकी शादी करके उन पर पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ भी डाल दी गईं। अब तक क़तील शिफ़ाई के शेरों में कच्चापन था। परंपरा को मद्देनज़र रखते हुए उन्होंने अपने एक रिश्तेदार शिफ़ा को अपना उस्ताद बनाया। वे बहुत विद्वान थे। उन्होंने क़तील शिफ़ाई की शायरी की बुनियाद पुख़्ता कर दी। उनकी शायरी में निखार आया। अपने उस्ताद को सम्मान देते हुए उन्होंने अपना तख़ल्लुस शिफ़ाई रख लिया और तब से वे क़तील शिफ़ाई बन गए। अब उनकी शायरी में जा़ती तजर्बे शामिल हुए तो उसे नया रंग मिल गया।

फैला है इतना हुस्न कि इस कायनात में
इंसां को बार-बार जनम लेना चाहिए

गाँव से रावलपिंडी शहर 50 मील दूर था। घर की माली हालत बहुत ख़राब हो गई तो क़तील शिफ़ाई नौकरी के लिए रावलपिंडी चल पड़े। दोस्तों और रिश्तेदारों ने अजीब-अजीब बहानों से पैसे मांगकर क़तील शिफाई को बिलकुल निर्धन कर दिया था। लगभग 20 साल की उम्र में उन्होंने एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में बुकिंग क्लर्क की नौकरी कर ली। तनख़्वाह 60 रूपए प्रतिमाह थी। इस समय तक शायरी में क़तील साहब का नाम चर्चित होने लगा था। लोकप्रिय पत्रिका स्टार के संपादक क़मर जलालाबादी ने उनकी कई रचनाएं छापीं। वे क़तील को बहुत अच्छी जगह देते थे। उन्होंने क़तील को बहुत अच्छी तरह प्रमोट किया। उस समय लाहौर की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका अदब-ए-लतीफ़ की ओर से बुलावा आया तो नौकरी छोड़कर क़तील शिफ़ाई वहाँ सहायक संपादक बन गए। उस समय वहाँ  शायरों, गायकों, आलोचकों और रंगमंच कलाकारों की भरमार थी। क़तील साहब को गाने का शौक़ हुआ तो उन्होंने कुछ समय गाना भी सीखा। मगर शायरी का पलड़ा भारी रहा।

वह प्रगतिशील शायरी का दौर था। अदब-ए-लतीफ़ में कृश्नचंदर,राजेंद्र सिंह बेदी,सआदत हसन मंटो, उपेंद्रनाथ अश्क और इस्मत चुगताई जैसे अफ़सानानिगार छपते थे तो फै़ज़ अहमद फै़ज़,नून मीम राशिद, अहमद नदीम कासमी जैसे प्रगतिशील शायर भी छपते थे। एक प्रकार से यह प्रगतिशीलों की प्रतिनिधि पत्रिका थी। सालभर बाद ही कुछ कारणों से क़तील शिफ़ाई को यह पत्रिका छोड़कर वापस जाना पड़ा। मगर एक फ़िल्म कंपनी उन्हें फिर लाहौर ले आई। दो माह बाद फ़साद शुरू हो गए। फिर उसके बाद देश का विभाजन हो गया। क़तील हमेशा के लिए लाहौर के हो गए।

आजा़दी के बाद क़तील शिफ़ाई ने पत्रकारिता शुरू की। वे मशहूर फ़िल्म साप्ताहिक अदाकार के संपादक बन गए। कुछ समय बाद उन्हें अदब-ए-लतीफ़ ने वापस बुलाया। यह मासिक पत्रिका थी। क़तील एक साथ दोनों काम देखने लगे। उन्होंने विभाजन के पहले संगीतकार श्यामसुंदर की फ़िल्म में पहला गीत लिखा था। विभाजन के बाद सन् 1948 में उन्होंने पहली पाकिस्तानी फ़िल्म तेरी याद में गीत लिखे। इस तरह उन्हें पाकिस्तान का पहला फ़िल्म गीतकार होने का भी श्रेय प्राप्त है।

क्या विभाजन के बाद क़तील शिफ़ाई का मन भारत आने को नहीं हुआ ?
उदास लहजे में उन्होंने बताया- विभाजन के बाद डेढ़ साल तक साहिर लुधियानवी पाकिस्तान में थे। वे आने लगे तो मैं उनके साथ मुम्बई आना चाहता था। मगर उस वक़्त एक लड़की से मेरा इश्क़ चल रहा था। लड़की अगर हिंदुस्तान आती तो यहाँ उसके लिए काफी़ ख़तरे थे। इस तरह इश्क़ ने मुझे रोक लिया और मैं वहीं का वहीं रह गया।
वो दिल ही क्या तेरे मिलने की जो दुआ न करे
मैं तुझको भूल के ज़िंदा रहूँ, ख़ुदा न करे

क़तील शिफ़ाई ने लगभग 300 फिल्मों में गीत लिखे । इनमें चार-पाँच भारतीय फ़िल्में भी शामिल है। महेश भट्ट की फिर तेरी कहानी याद आईऔर नाराज़ फ़िल्मों में भी उनके गीत हैं। फ़िल्मों में व्यस्त होने के बावजूद वे लगातर ग़ज़लें भी लिखते रहे। क़तील साहब की 20 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी किताबों के नाम काफी़ दिलचस्प होते हैं, मसलन- हरियाली, गजर, जलतरंग, झूमर, छतनार, गु्फ़्तगू, अबाबील, बरगद, घुंघरू, समंदर में सीढ़ी आदि।

अदब में इतना योगदान करने पर भी आलोचकों ने क़तील शिफ़ाई की उचित नोटिस क्यों नहीं ली ?

क़तील साहब कहते हैं- मैंने कभी आलोचकों की परवाह नहीं की बल्कि हमेशा पाठकों की परवाह की। आलोचकों के पसंदीदा शायरों का एक एडिशन भी पूरा नहीं बिकता और मेरी किताबों के दस-दस एडिशन बिक जाते हैं। पढ़ने वाले सच्चे हैं। मुझे उनकी पसंद पर भरोसा है। मुझे फ़िराक़ गोरखपुरी, फै़ज़ अहमद फै़ज़, अहमद नदीम कासमी और जोश मलीहाबादी जैसे बड़े अदीबों से तारीफ़ हासिल हुई। हिंदुस्तान के जाने माने समीक्षक गोपीचंद नारंग ने मेरी शायरी को अच्छी तरह समझा और निष्पक्ष समीक्षा की। हमारे मुल्क पाकिस्तान में आलोचकगण भूमिका पढ़कर समीक्षा लिखते हैं। यहाँ हिंदुस्तान में नारंग साहब ने पढ़कर लिखा। इस मामले में खुशवंत सिंह भी सच्चे और खरे आदमी हैं। उन्होंने मुझ पर जो कुछ लिखा मैं उसका क़ायल हूँ।

मैं तो प्रगतिशील आंदोलन से जुड़ा रहा, मगर अपनी चाल हमेशा अलग रही। मैंने मुक्का नहीं ताना। नारा नहीं लगाया। अगर मेरी महबूबा ग़रीबी की वजह से मुझे छोड़ देती है, तो मैं विश्लेषण करूँगा। इसकी वजह में भी व्यवस्था होती है। यह लिखना भी प्रगतिशील है। खु़द को प्रगतिशील कहने वाले कई लेखकों ने खेत-खलिहान और गाँव नहीं देखे। कारखा़ना, झोपड़पट्टी और मज़दूर बस्ती नहीं देखी। मगर सब पर लिखते हैं। मैं तो सिर्फ़ अपने अनुभव लिखता हूँ। मेरे ख़्याल से मंटो सबसे ज़्यादा प्रगतिशील हैं जो वेश्याओं पर भी लिखते हैं और सच्चा लिखते हैं।

अचानक क़तील साहब को कुछ याद आ गया। वे उठकर कमरे के भीतर गए और अपनी एक किताब लेकर आए। इसकी भूमिका फै़ज़ अहमद फै़ज़ ने लिखी थी। फै़ज़ साहब के शब्दों में-क़तील शिफ़ाई तरक़्क़ीपसंद काफ़िले वालों के साथ भी हैं और उनसे जुदा भी। अगर संवेदना को लिखा जाए तो वे अपने साथियों के हमराह हैं। लेकिन उनके कहने का अंदाज अपना है। क़तील ने किसी प्लेटफार्म पर खड़े होकर मौलवी बनकर अपने चाहनेवालों को सम्बोधित नहीं किया बल्कि फ़र्श पर उनके साथ बैठकर मीठी-कड़वी बातें की हैं। न कभी गु़स्सा किया, न कभी मुक्का ताना, बल्कि दर्द को मुहब्बत की जु़बान देकर सच बयान किया। जो कुछ कहा अपने दिल की गवाही पर कहा। उन्होंने सीधे सादे लफ़्ज़ों में गहरी बातें कीं। शोर नहीं मचाया। धीमे सुर लगाए। इसलिए उनका नग़मा कभी बेसुरा नहीं होता। उन्होंने हलके रंगो का इस्तेमाल किया। इसलिए कोई नक़्श आँखों में खटकता नहीं। यही फ़न और शाख़्सियत उनकी नुमायाँ खू़बी है।

अवाम में क़तील साहब की ज़बरदस्त लोकप्रियता को देखते हुए सन 1994 में उन्हें पाकिस्तान का सबसे बड़ा अदबी अवार्ड प्राइड ऑफ परफार्मेंस दिया गया। इसके तहत 50 हजा़र रूपए और गोल्डमेडल दिया जाता है।

क्या यह अदबी अवार्ड क़तील साहब को विलंब से मिला ?
वे फरमाते हैं- मैंने कभी पुरस्कार के लिए सरकारी इदारे पर दबाव नहीं डाला। अपनी कोई लॉबी नहीं बनाई। यह पुरस्कार ऐसे लोगों को भी मिल चुका है, जो मौलिक शायर नहीं हैं। मुझे तो यह 20 साल पहले मिल जाना चाहिए था। अगर मैं इसे नहीं लेता तो सरकार बदनाम होती। मुल्क की इज़्ज़त रखने के लिए मैंने यह अवार्ड ले लिया। आदमी अवार्ड से नहीं काम से पहचाना जाता है। मैं आज भी शायरी का छात्र हूँ। मुझे और बेहतर लिखना है। बुलंदी की तरफ़ जाना है।

क्या पकिस्तान को यह बुरा नहीं लगता कि आप हिंदुस्तानी फिल्मों के लिए भी गीत लिखते हैं ?
क़तील साहब मुस्कराते हैं- बात प्यार से बनती है, नफ़रत से नहीं । दोनों मुल्कों में ऐसे भी लोग हैं जो नहीं चाहते कि हम पड़ोसी की तरह रहें। हमारी सरकार हिंदुस्तान से आलू खरीदती है। मैं गीत लिखता हूँ। दोनों दोस्ती की बात है। मैं प्यार में साथ हूँ,नफ़रत में नहीं।

कहा जाता है कि पाकिस्तान में जम्हूरियत (प्रजातंत्र) अब तक नहीं आई ?’

क़तील साहब के चेहरे से मायूसी छलकने लगी- पकिस्तान की आधी उम्र मार्शल लॉ की लानत में गुज़र गई। जम्हूरियत जब भी आती है लोग उसके टुकड़े कर देते हैं। जनता का काम प्रजातंत्र से ही चलेगा, फौ़जी ताक़त से नहीं। किसी भी मुल्क का जम्हूरियत के बिना गुजा़रा नहीं हो सकता। मुझे उम्मीद है कि एक दिन वहाँ भी जम्हूरियत आएगी़।

भारत और पकिस्तान में हमेशा विरोध की राजनीति क्यों चलती है ?
क़तील साहब के माथे पर सोच की शिकन पड़ गई- अब वो लीडर नहीं रहे जो मामला सुलझाएं। जिस नारे से कुर्सी मज़बूत रहती है, लीडर वही नारा लगाते हैं। मुझे उस दिन का इंतजा़र है जब दोनों देशों के दो नेता छोटे-मोटे झगड़े मिटाने के लिए एक-दूसरे की ओर हाथ बढ़ाएंगे। मेरी तमन्ना है कि मैं उस समय ज़िंदा रहूँ और दोनों नेताओं को हार पहनाऊँ।

दोनों देशों की अवाम एक दूसरे के ख़िलाफ़ नहीं हैं। सियासी लोगों को जिस वक़्त जो नारा सूट करता है वे वही लगाते हैं। पता नहीं कुछ लोगों को क्यों एक दूसरे के क़रीब आने में तकलीफ़ होती है। फा़यदा झगड़े में नहीं है, प्यार में है। फौ़जी साजो-सामान कम होगा तो वह पैसा जनता के काम आएगा। उससे विकास होगा। जर्मनी और जापान का उदाहरण हमारे सामने है। उन्होंने अपने काम से दुनिया का दिल जीता। कश्मीर का मसला तो आधी सदी पुराना हो गया। मैं रायशुमारी का विरोध नहीं करता, मगर वहाँ रायशुमारी तीन मुद्दों पर होनी चाहिए (1) क्या वे लोग भारत में रहना चाहते हैं ? (2) क्या वे लोग पकिस्तान में रहना चाहते हैं ? (3) क्या वे इन दोनों से अलग स्वतंत्र रहना चाहते हैं ?

क़तील साहब से मैंने उनसे एक तल्ख़ सवाल पू्छा- क्या पकिस्तान में कठमुल्लापन हावी है ?
हाँ! क़तील साहब ने स्वीकार किया। वहाँ इस्लाम के नाम का इस्तेमाल करके ज़िया साहब मुल्लाओं को अवाम के सिर पर तलवार की तरह लटका गए। जब वो दौर ख़त्म होगा, कट्टरपन और तानाशाही ख़त्म होगी, तो वहाँ इंसानियत वाला इस्लाम आएगा। जहाँ जम्हूरियत होगी, वहीं इस्लाम होगा । वहाँ मुल्लाओं वाला इस्लाम चल रहा है। मगर अंदर ही अंदर एक लावा भी खौल रहा है। इन्हें किसी दिन वह शिकस्त देगा। ज़िया साहब अपने फा़यदे के लिए मुल्लाओं को बहुत ताक़त दे गए हैं। मुल्लाओं में कुछ अच्छे लोग भी हैं, मगर उनकी संख्या आटे में नमक जितनी है। उनकी कोई सुनता नहीं। कट्टरपंथियों ने कु़रआन में से न जाने कैसी-कैसी चीज़ें ढूँढकर तानाशाही को इस्लाम सम्मत सिद्ध किया।

आपको हिंदुस्तान आकर कैसा लगता है ?
क़तील साहब के चेहरे पर मासूमियत छा जाती है- बहुत अच्छा लगता है। मैं यहाँ अपने ख़्याल के लोगों से मिलता हूँ। दोस्तों में रहता हूँ। उनका साथ बहुत अच्छा लगता है। मुझे तो वीसा भी पुलिस जाँच से मुक्त मिलता है, क्योंकि सबको इस सच्चाई का पता है-
उनका जो काम है वो अहले-सियासत जानें
मेरा पैगा़म मुहब्बत है जहाँ तक पहुंचे ...... ( जिगर )

-देवमणि पाण्डेय


Thursday, August 14, 2014

शायर निदा फ़ाज़ली से देवमणि पांडेय की मुलाक़ात

शायर निदा फ़ाज़ली

कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता                                        


उर्दू की आधुनिक शायरी का एक बहुत अहम नाम हैं- निदा फ़ाज़ली। शायर निदा फ़ाज़ली ने विभाजन की तकलीफें झेली हैं  विभाजन की आग में जलते हुए घरों को देखा है और अपना घर भी खोया है। आज भी खोए हुए घर की तलाश में यह शायर अकेला भटक रहा है। यह बेमंजिल की मुसलसल तलाश उसकी मंज़िल है। हमारी सांस्कृतिक विरासत में रची बसी निदा फ़ाज़ली की रचनाओं में सहज ही भारतीयता की शिनाख़्त की जा सकती है। अपनी रचनाओं में उन्होंने हिंदी और उर्दू ज़बन का फ़ासला मिटा दिया है और इसीलिए काफ़ी लोग उन्हें हिंदुस्तानी ज़बान का शायर मानते हैं । प्रस्तुत है निदा फ़ाज़ली से देवमणि पांडेय की बातचीत।

पिछले कुछ वर्षो में उर्दू में दोहे काफ़ी लोकप्रिय हुए हैं। क्या आप मानते हैं कि यह विधा हिंदी से ली गई हैं ? उर्दू में लिखे जाने दोहों से आप कहाँ तक संतुष्ट हैं ?
अपनी जड़ों की तलाश और उनसे  जुड़कर चलना भी एक आधुनिक रवैया हैं। धर्म और भाषा के नाम पर विभाजन होने के बावजूद पाकिस्तान में इब्जे इंशा, नासिर शहजाद, जमीकु़द्दीन और दूसरे शायर अपने गीतों, दोहों और कविताओं में उसी सामूहिक संस्कृति के बिखराव को समेटते नज़र आते हैं, जो अविभाजित भारत की पहचान है। हिंदी में दोहों की एक बड़ी परंपरा है। लेकिन उर्दू में आज से पहले दोहा लिखा ही न गया हो ऐसा भी नहीं है। खु़सरो के यहाँ दोहे मिलते हैं । नज़ीर अकबराबादी ने दोहे लिखे हैं। उर्दू में दोहे कम ही लिखे गए हैं। हर विधा को सशक्त क़लम की ज़रूरत होती है । अभी इसे ग़ज़ल की तरह अच्छे शायर नसीब नहीं हुए हैं।



शायर देवमणि पाण्डेय,समाजसेवी रामनारायण सराफ, शायर निदा फ़ाज़ली और शायर नक़्श लायलपुरी (मुम्बई 2005)



आपके दोहे बहुत सराहे गए हैं। फिर भी आपने सीमित मात्रा में ही दोहे क्यों लिखें ?
मेरी परंपरा में हिंदी और उर्दू दोनों शामिल हैं। मुझे इस फार्म में लिखने की प्रेरणा रहीम और बिहारी से मिली है। लेकिन किसी पुरानी विधा को ज्यों का त्यों उठाने से बात नहीं बनती। इसमें कुछ अपना भी जोड़ना पड़ता है। इसे अपने युगबोध में ढालना पड़ता है। मैनें दोहे लिखना बंद नहीं किया है। अब भी लिखता हूँ। लेकिन मैं गिनती बढ़ाने के लिए नहीं अपने आपको अपनी तरह से अभिव्यक्त करने के लिए ही लिखता हूँ। शायद इसलिए इनकी गिनती कम है ।

पाकिस्तान में महिला अदीबों की क्या स्थिति है ? जिन कारणों से फ़हमीदा रियाज़,किश्वर नाहीद आदि चर्चित हुई हैं क्या वैसी संभावना हिंदुस्तान में भी आपको किसी शायरा में नज़र आती है ?
पकिस्तान में फ़हमीदा रियाज़ और किश्वर नाहिद के आलावा और भी कई अच्छी शायराएं हैं । उनमें परवीन शाकिर, शाहिदा हसन, सारा शगुफ़्ता, अदा बदायूंनी, ज़ोहरा निगाह काफ़ी मशहूर हैं। हमारे यहाँ अज़ीज़ बानो वफ़ा, साजिदा जैदी, राना हैदरी आदि अच्छी लिखने वालों में हैं।

मैनें सुना है कि घर से मजिस्द है बहुत दूर वाले आपके शेर पर पाकिस्तान में एतराज़ हुआ था। क्या आप खुलासा करना पसंद करेंगे कि वे एतराज़ क्या थे और आपने उनका क्या जवाब दिया?

मैं पाकिस्तान मुशायरे में गया था। वहाँ राइटर्स गिल्ड ने भी शेर पढ़ने के लिए आमंत्रित कर लिया। मैंने वहाँ यह शेर भी पढ़ा था -
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए

वह डिक्टेटरशिप का ज़माना था। धर्म के नाम पर जनता के भोलेपन का शोषण किया जा रहा था। मुझ पर यह एतराज़् हुआ कि मैंने मस्जिद और बच्चे की हँसी की तुलना करने का अधर्म किया है। मेरा जवाब था, बच्चे को ख़ुदा बनाता है और मस्जिद को इंसान। मैंने ख़ुदा की बनाई चीज़ को महत्व देकर कोई अधर्म नहीं किया है।

आपकी कुछ गजलों में घरशब्द पर काफ़ी ज़ोर दिया गया है । क्या घर के साथ आपकी कोई ऐसी याद जुड़ी है जिसे आप भुला नहीं पाते ?

मैंने सन् 1965 में ग्वालियर में अपना घर खोया है। खोया हुआ घर ज़मीन से ग़ायब होकर कल्पना में छुप जाता है। मेरी बेघरी मुझ पर राजनीति का श्राप था। इस खोए हुए घर की खोज मेरा कवि धर्म है। इसकी तलाश अब सिर्फ़ मेरे घर की तलाश नहीं है। यह तलाश उस विद्रोह का प्रतीक भी है जो ज़िंदा रहने की शर्त है-

दुनिया न जीत पाओ तो हारो न आपको
थोड़ी-बहुत तो ज़हन में नाराजगी रहे

आपने अपनी रचनाओं में कई जगह पुराने आदर्शो की धज्जियां उड़ाई हैं लेकिन नए आदर्शो के निर्माण का कोई आधार नहीं प्रस्तुत किया,ऐसा क्यों ?

आदर्शों के निर्माण की मज़दूरी मेरे लिए ज़रूरी नहीं। संसार में आदिकाल से अब तक सैकड़ों आदर्श हमें विरासत में मिले हैं। इनका विश्लेषण करने से जब जीवन को फु़र्सत मिलेगी तब निर्माण का भ्रम भी पाल लूँगा ।

फ़िल्मों में गीत लिखने की शुरूआत आपने कब और किन परिस्थितियों में की ?

मैं 1965 में मुंबई आया। यहाँ आकर हिंदी-उर्दू पत्रकारिता से जुड़ गया। फ़िल्म लेखन में मेरी रुचि नहीं थी। एक दिन विट्ठल भाई पटेल के यहाँ एक गोष्ठी में मैंने शेर सुनाए। श्रोताओं में एक अजनबी प्रभावित हो गए। उनका नाम था सुगनू जेठवानी। उन्होंने चार फ़िल्मों की घोषणा एक साथ की। उन सबमें मेरा नाम गीतकार के रूप में था। उनमें तीन फिल्में बनीं- शायद, कन्हैया और हरजाई

क्या कारण है कि आम जनता में जितना आपकी गै़र फ़िल्मी रचनाएं लोकप्रिय हुईं, उतने लोकप्रिय आपके फ़िल्मी गीत नहीं हुए ?
ऐसा नहीं है, फिल्मों में भी कई गाने लोकप्रिय हुए। ये गीत आम कमर्शियल स्टाइल के न होते हुए भी सुनने वालों को पसंद आए। उनमें से कुछ ये हैं-

1.तू इस तरह से मेरी जिंदगी में शामिल है।
2.कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता।
3.तुम्हारी पलकों की चिलमनों में ये क्या छुपा है सितारे जैसा।
4.तेरे लिए पलकों की झालर बुनूँ।
5.होश वालों को ख़बर क्या बेख़ुदी क्या चीज़ है।

फ़िल्मी गीत लिखने के लिए निश्चित ही आपको अपने साहित्यिक स्तर से नीचे उतरना पड़ता होगा। क्या आपको इस तरह के समझौते से असुविधा नहीं होती ?
समझौता तो जीवन में हर जगह करना पड़ता है। किेतनी चीज़ें हैं जो हमें संसार में अच्छी नहीं लगतीं। गर्मी में गर्मी अच्छी नहीं लगती। सर्दीं में सर्दीं परेशान करती है। जहाँ मैं रहता हूँ वहाँ के सामने के घर हवा को रोकते हैं। मेरी मर्ज़ी के बिना सद्दाम हुसैन ने कुवैत पर हमला बोल दिया था। देश के विभाजन के बारे में कब मुझसे सलाह ली गई थी। लेकिन इन सबकी प्रतिक्रियाओं का असर मुझ पर पड़ता है। इनके साथ जीना पड़ता है-

सफर में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो।
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो।

क्या आपको लगता है कि सुरीले गीतों का ज़माना वापस आएगा ?
फिल्मों में गीतों का संबंध कहानी से होता है। फिल्म में कहानी ढंग की होती है तो गीत भी ढंग के होते हैं। व्यवसाय के नाम पर जिस क़िस्म की मसाला फिल्में बनती हैं, उनमें गीत भी मसालों में पिस जाते हैं। गीत के साथ संगीत भी चोला बदलने को विवश है। ख़य्याम, नौशाद, आरडी बर्मन, जयदेव, रोशन संगीत की गीत की भाषा से भी परीचित थे। इसके सुर शब्दों का आदार करते थे। जहाँ यह ज्ञान नहीं होगा, वहाँ शब्दों का आनादर ही होगा। केवल मेलोडी से बात नहीं बनती। फिल्म में कहानी, संवाद, निर्देशन, संगीत और गीत का कलात्मक संतुलन आवश्यक है।

 देवमणि पांडेय : 98210-82126