Friday, May 18, 2012

अपना तो मिले कोई : समीक्षा - यश मालवीय

चित्र- में : अपना तो मिले कोई के लोकार्पण समारोह में (बाएं से दाएं)- शायर देवमणि पांडेय, शायर ज़फ़र गोरखपुरी, लोक गायिका डॉ. शैलेश श्रीवास्तव, शायरा दीप्ति मिश्र, कवयित्री माया गोविंद (मुम्बई 12.2.2012)

अपना तो मिले कोई : समीक्षा - यश मालवीय
आदमी पूरा हुआ तो देवता हो जाएगा
ग़ज़ल के पैरहन में रचनात्मकता की रूह की साँसें सँजोता ग़ज़ल संग्रह 'अपना तो मिले कोई' मेरे सामने है। हिन्दुस्तानी लबोलहजे में गुफ़्तगू करते अशआर, शायराना अंदाज़, ज़िंदगी की तक़लीफ़ों से वाबस्ता फ़कीराना ठाठ, अलमस्त तबीयत, सादगी का हुस्न, अपने वक्त के संजीदा तक़ाज़े, आज की कविता का मुहावरा, कबीराना रंग, रूमान के दिलकश गोशे, संवाद का सलीक़ा, बारीक बुनावट, एकदम अलहदा सी कहन, सजा हुआ सा शिल्प, कथ्य का बाँकपन, चोट करती भंगिमा इन सारी रंग -रेखाओं से मिलकर संग्रह के कवि का एक आत्मीय सा स्केच तैयार होता है और वह स्केच है सुकवि देवमणि पांडेय का। जिन्होंने उन्हें मंचों से बोलते- बतियाते, संचालन करते, काव्य पाठ करते देखा-सुना और महसूस किया है, उन्हें वह संग्रह में भी बाक़ायदा बातचीत करते नज़र आएंगे।

शायरी में देवजी की शख़्सियत ही बोलती है। ग़ज़ल का व्याकरण उन्हें सिद्ध है। वह संवेदना के गहरे समन्दर में उतरकर कविता के मोती खंगालते हैं। एक पुल रच देते हैं ग़ज़ल की उर्दू और हिन्दी प्रकृति के बीच। हिन्दुस्तानी ग़ज़ल का एक मुकम्मल चेहरा मंजरे-आम पर होता है। ग़ज़लें बहुत अपनी सी लगती हैं, तभी तो 'अपना तो मिले कोई' की ग़ज़लें किसी ख़्वाब की तरह ही तामीर होती हैं, हमारे वक़्त की धडकनें जहाँ साफ़ सुनी जा सकती हैं। देवमणि पांडेय के शायर की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह कहीं से भी  आर्टीफ़ीशियल नहीं है। यह अकृत्रिमता ही उसकी ताकत है। वह समय के साथ चलता है।

ग़ज़ल ख़ासकर हिन्दी में, इस वक़्त भयानक अराजकता के दौर से गुज़र रही है। भाई लोगों ने इसे ग़रीब की ज़ोरू समझलिया है। जो चाहे जैसा उसे बरत रहा है। ऐसी विषम स्थिति में देवमणि जी का नाम एक भरोसे की तरह उभरता है। वह ग़ज़ल की आबरू का पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं। वह कथ्य हिन्दी कविता से लेकर आते हैं  और शिल्प उर्दू ग़जल की समृद्ध परम्परा से लेते हैं। ग़ज़ल की एक गंगा-जमुनी तहज़ीब उजागर होती है। वह इस त्रासदी को भली भाँति जानते हैं कि हिन्दी वालों में अधिकांश के पास ग़ज़ल कहने का सलीक़ा नहीं हैं, तो वह इस बात को भी जानते हैं कि उर्दू कविता का कथ्य आज भी बहुत पीछे है, अपवाद दोनों ही जगह हैं। हिन्दी में बहर से ख़ारिज तो उर्दू में बासी कढ़ी में ही उबाल देती इश्क़िया मिज़ाज की ग़ज़लें आज भी तादाद में कही जा रही हैं। स्वस्थ रूमान सिरे से ही ग़ायब है।

इस विरोधाभास और विसंगति के मद्देनज़र 'अपना तो मिले कोई' संग्रह और भी अधिक प्रासंगिक हो उठता है। उसका कवि अत्यन्त सहज भाव से कविता के अनछुए छोर छूता है। शायद इसीलिए जनाब ज़फ़र गोरखपुरी निस्संकोच फ़रमाते हैं- 'ये ग़ज़लें नए रंगो-आहंग, नए लबो-लहजे की ग़ज़लें हैं जो बेशक ग़ज़ल के शायक़ीन को ख़्वाह वो हिन्दी के हों या उर्दू के मुतवज्जेह करेंगी।
            ये एक शायर के एहसास की प्यास की शिद्दत ही है, कि वो कहता है --

            दिल में मेरे पल रही है यह तमन्ना आज भी
            इक समन्दर पी चुकूँ और तिश्नगी बाक़ी रहे




तिश्नगी बाक़ी रहने की दुआ करने वाला क़लमकार ही आज के दौर का सच्चा क़लमकार होने का हक़ हासिल कर सकता है। तलाश और प्यास की भी एक गहरी लज़्जत होती है जिसे शायर ने गहरे तक महसूस किया है। ग़ज़ल को  आम तौर पर परायी ज़मीन से जोड़कर देखने का एक तंग नज़रिया भी रहा है, जिसे चकबस्त और फ़िराक़ से लेकर कृष्ण बिहारी नूर और फिर देवमणि पांडेय और आलोक श्रीवास्तव ने अपने-अपने स्तर पर गहरी संजीदगी के साथ तोड़ा है। ग़ज़ल को उर्दू और गीत को हिन्दी तक महदूद कर देने वाले अथवा उर्दू को मुसलमानों और हिन्दी को हिन्दुओं की बोली-बानी-भाषा भर समझने वाले इस दर्द को कभी नहीं समझ सकेंगे कि क्या होता है दायरों में बँधकर न सोचने वाले एक ईमानदार रचनाधर्मी का दर्द

हालाँकि आज भी हिन्दी में ग़ज़ल और उर्दू में गीत रचने वालों को लोहे के चने चबाने पड़ रहे हैं, ऐसा केवल उनकी हड़बड़ी और अतिरिक्त महत्वाकांक्षाओं के चलते है। हिन्दी में ही लें तो ज्य़ादातर गीतकार और नवगीतकार ग़ज़ल को शार्टकट समझकर चोर दरवाजों से घुसकर स्थापित होने के चक्कर में हैं या फिर बेकल उस्ताही जैसा बड़ा शायर भी गीत रचता है तो 'पनघट' 'गोरी' और 'साँवरिया' वाली शब्दावली से बाहर नहीं जा पाता। देवमणि पांडेय दोनों ही प्रकार की जड़ताओं से जूझे हैं। वह गीत की संवेदना भी अगर ग़ज़लों में लेकर आए हैं तो ग़ज़लियत के मूल्य पर नहीं। समकालीन कविता के कवि मंगलेश डबराल घर का रास्ता देखते हैं तो कवि देवमणि पांडेय भी कहते हैं ---

            आँगन में नीम शाख़ पे चिड़ियों का घोसला
            जो खो दिया है तूने वही घर तलाश कर

जनाब अब्दुल अहद 'साज़' बड़े प्यारे अंदाज़ में इन ग़ज़लों के बारे में कहते हैं- 'देवमणि पांडेय का यह काव्य संकलन ' अपना तो मिले कोई' पढ़ते हुए आपको ये अंदाज़ा बख़ूबी हो सकेगा कि उर्दू के आसमान पर हिन्दी के सितारे कितनी ख़ूबसूरती से टाँके जा सकते है और हिन्दी के गुलशन में उर्दू के फूल कितने प्यार से खिलाए जा सकते हैं।'

सबसे ज़रूरी और अहम बात तो यह है कि रवायत के उलट देवमणि जी ने ज़फ़र गोरखपुरी और 'साज़' साहब की भूमिकाएँ संग्रह कें अन्त में दी हैं, ताकि सहृदय पाठक पहले से ही इन ग़ज़लों को देखने का कोई चश्मा तय न कर लें, हालाँकि इन चश्मों का भी कोई सानी नहीं हैं, बल्कि 'सुभान अल्ला' बोलने को जी चहता है, निश्चित ही इन चश्मों से भी एक सार्थक और सम्यक दृष्टि मिलती है।

अधिकतर शेर दिल में सीधा उतर जाने वाले हैं एक ग़ज़ल संग्रह में अगर पंद्रह-बीस शेर भी  काम के मिल जाएँ तो मैं किताब को कामयाब समझता हूँ पर यहाँ तो अच्छे शेरों की भरमार सी है, किसे 'कोट' करुँ और किसे छोडूँ, उलझन में हूँ। फ़िलहाल कुछ शेर मुलाहिजा हों ---
           
आदमी पूरा हुआ तो देवता हो जाएगा
            ये ज़रूरी है कि उसमें कुछ कमी बाक़ी रहे

            हुशियारी और चालकी में डूब गई है ये दुनिया
            फिर भी सारा ज्ञान छुपा बच्चों की नादानी में

            उदासी में है ड़ूबा दिल किसी का
            छुपा है अश्क में चेहरा खुशी का

            सूरज का हाथ थाम के जब शाम आ गई
            बच्चे ने भीगी रेत पर एक घर बना दिया

            जब हो गए हैं तेरे तो फिर घर की फ़िक़्र क्या
            मस्जिद में दिन तो रात शिवालों में कट गई
           
एक पंक्ति मे कहें तो 'अपना तो मिले कोई' ने हमें समकालीन ग़ज़ल का एक नया आसमान अता किया है, जो बहुत दिनों तक हमारे मन-प्राण पर छाया रहेगा।

समीक्षा : यश मालवीय : -111, मेंहदौरी कॉलोनी, इलाहाबाद (. प्र.) - 211004 , फोन : 098397-92402
ग़ज़ल संग्रह : अपना तो मिले कोई , शायर : देवमणि पाण्डेय, क़ीमत : 150 रूपए
प्रकाशक : अमृत प्रकाशन, 1/5170, बलबीर, गली नं.8, शाहदरा, दिल्ली-110032, फोन : 099680-60733

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