Friday, April 27, 2012

अपना तो मिले कोई : समीक्षा - चन्द्रसेन विराट




अपना तो मिले कोई : समीक्षा - चन्द्रसेन विराट
कभी तो अब्र बनकर  झूमकर निकलो कहीं बरसो

मुम्बई के देवमणि पांडेय का नाम ग़ज़लों के क्षेत्र में एक परिचित एवं प्रसिद्ध नाम है। वे कई प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होते रहे हैं और प्रशंसा के साथ पढ़े गये हैं। वे कवि सम्मेलनों के मंच के कुशल संचालक के रूप में भी बहुत जाने गये हैं। 'दिल की बातें' और 'ख़ुशबू की लकीरें' काव्य-संग्रह के बाद अब वे अपना नया ग़ज़ल-संग्रह ' अपना तो मिले कोई ' होकर उपस्थित हुए हैं। इस ग़ज़ल-संग्रह में उनकी सौ ग़ज़लें है जो बहुत ख़ूबसूरत वर्गाकार आकार (अक्सर पुस्तकों की साइज डिमाई साइज होती है ) की नयनाभिराम सजधज के साथ, सुरुचिपूर्ण तरीके के साथ छापी गयी है। उर्दू की परंपरा के अनुसार ग़ज़लों के शीर्षक नहीं दिये गये हैं किंतु ग़ज़ल की पहचान हेतु अनुक्रमणिका में ग़ज़ल की प्रथम पंक्ति पूरी दी गई है। पहली 93 ग़ज़लें आग्रह के साथ केवल मतला+चार शेर के साथ एवं अंतिम 7 ग़ज़लों में मतला+पाँच शेर रखे गये हैं। प्रकारांतर से यह भी उर्दू की चार या पाँच शेर ही रखने की पद्धति की पुष्टि करती है। कवि / शायर देवमणिजी ने पुस्तक में अपनी तरफ़ से कुछ भी नहीं लिखा है तथापि उर्दू के जाने माने शायर ज़फ़र  गोरखपुरी एवं अब्दुल अहद साज़ ने संक्षिप्त भूमिकाएं अवश्य लिखी हैं।

ज़फ़र गोरखपुरी ने लिखा है -'उनकी ग़ज़लें आम हिन्दीं ग़ज़लों से हर सतह पर बड़ी हद तक मुख्तलिफ़ हैं। उन्होंने अपनी ग़ज़ल की बुनत और तख़लीकी रवैयों में उर्दू से इस्तिफ़ादा किया है। वो नई नस्ल के ग़ज़लकारों में ऐसे नौजवान ग़ज़लकार हैं जिन्होंने हिन्दी और उर्दू के अटूट रिश्ते से फ़ैज़ उठाया है और बेशक ये एक मुबारक अमल है।' प्रकारांतर से यह माना गया है कि ये हिन्दी की ग़ज़लें न होकर उर्दू की ग़ज़लें हैं। उनका मंतव्य रहा है कि केवल देवनागरी लिपि में लिखी जाने के कारण ग़ज़लें हिन्दी की ग़ज़लें नहीं हो जातीं। अर्थात उनका लबोलहजा कहन एवं मुहावरा आदि सब पूर्णतया हिन्दी का न होकर उर्दू का ही है। इसी तरह अब्दुल अहद साज़ ने भी लिखा है----' देवमणि पांडेय की ग़ज़लों में जो कशिश है उसका कारण यह तो है ही कि वे उर्दू-हिन्दी के मिले जुले रचाव और सुभाव को लिए हुए हिन्दुस्तानी ग़ज़लें हैं।

दोनों शायर इन ग़ज़लों को हिन्दी ग़ज़लें  कहने को तत्पर नहीं हैं। मेरे विचार से हिन्दुस्तानी एक लहजा हो सकता है किंतु वह कोई स्वतंत्र भाषा नहीं है। ठीक से उन्हें उर्दू की ग़ज़लें कहने से भी गुरेज़ किया गया है। इस विवाद को दरकिनार करते हुए देवमणिजी की ग़ज़लों में ग़ज़ल का रस भरपूर ढूँढा जा सकता है। यही ग़ज़लों का अभिप्रेय होता है और वह इन ग़ज़लों में यथेष्ट मात्रा में मिलता है।पुस्तक के बैक कवर पर एक मतला है जो शीर्षक चुनने का संकेत देता है-
           
इक फूल मुहब्बत का, सहरा में खिले कोई
            इस शहर की गलियों में अपना तो मिले कोई

 



 देवमणि पाण्डेय के ग़ज़ल संग्रह 'अपना तो मिले कोई' के लोकार्पण समारोह में कवि डॉ.बोधिसत्व, शायर ज़फ़र गोरखपुरी, शायर हैदर नजमी और गायिका जूही (मुम्बई 14.2.2012)

तकनीकी दृष्टि से ग़ज़लों की नोकपलक सजी-सँवरी हुई है, देखी-भाली है, इसलिए प्रभावित करती है। सांगितिकता को पर्याप्त संरक्षण देकर कही गई ये ग़ज़लें देवमणिजी की प्रखर प्रतिभा, शब्द-चयन, कथा की प्रभुविष्णुता एवं विलक्षणता (गज़लियत अथवा तग़ज़्ज़ुल) को संरक्षण देनेवाली ग़ज़लें कहे जाने के योग्य हैं । वे अपनी अभिव्यक्त भावनाओं से संतुष्ट होकर चुक जाना नहीं चाहते। तभी तो कहते हैं ---

दिल में मेरे पल रही है ये तमन्ना आज भी
इक समुन्दर पी चुकूँ और तिश्नगी बाक़ी रहे

अपने मनुष्य में वे कोई कमी बाक़ी रखने के पक्ष में है ताकि वह मनुष्य देवता न बन जाये। इस भाव को  कितनी  सुन्दरता से कहा है उन्होंने -----
           
आदमी पूरा हुआ तो देवता हो  जाएगा
            ये ज़रूरी है कि उसमें कुछ कमी बाक़ी रहे

जीवन में दुख के महत्व को कम नहीं आँका है देवमणि ने -- इसीलिए कह सके हैं--

कितने फ़नकारों ने अब तक जज़्बों को अलफ़ाज़ दिये
अपने ग़म का सरमाया ही शायर की पहचान हुआ

देवमणि की ग़ज़लों में रूमान भरपूर है और वह भी आधुनिक दौर और समकालीनता के साथ-साथ व्यक्त हुआ है -

तुम बुद्धू हो, तुम पागल हो, दीवाने हो तुम
उसका मुझसे यह सब कहना अच्छा लगता है

कभी तो अब्र बनकर  झूमकर निकलो कहीं बरसो
कि हर मौसम में ये संजीदगी अच्छी नहीं लगती

वो दिन भी क्या थे यारो, हर चेहरा इक गुलशन था
नज़्म लिखी थी जिस चेहरे पर, उसका कोई उन्वान न था

देवमणिजी ने अपनी आयु एवं अनुभव के प्रकाश में जीवन के तरुण क्षणों, प्रेम की तीव्रता और मिलन विरह की तीक्ष्णता को पूरे लाघव के साथ ग़ज़लों में व्यक्त किया है जो केवल तरुणों को ही नहीं वयस्क लोगों को भी अपील करता है। जीवन के अँधेरे पक्ष की और उनका ध्यान कम ही गया है जो कि स्वप्नवत कदापि नहीं है। ठोस यथार्थ है जिससे टकराकर सपने चूर चूर हो जाते हैं। इस पक्ष पर उनके अनुभवी शायर से अपेक्षा तो थी किंतु वह पूर्ण नहीं हुई है। शायद वह अगले संग्रहों में पूर्ण हो। यहाँ फिर अब्दुल अहद साज़ की बात कहना उचित होगा ---'देवमणि पांडेय का यह काव्य संकलन पढ़ते हुए आपको यह अंदाज़ा बख़ूबी हो सकेगा कि उर्दू के आसमान पर हिन्दी के सितारे कितनी ख़ूबसूरती से टाँके जा सकते हैं और हिन्दी के गुलशन में उर्दू के फूल कितने प्यार से खिलाये जा सकते हैं।

देवमणि पांडेय के शायर ने अपना कविकर्म पूरी क्षमता के साथ किया है, जो लुभाता ही नहीं, प्रभावित भी करता है और इसी कारण यह ग़ज़ल संग्रह सर्वथा श्लाघनीय है। हिन्दी जगत में इसका स्वागत होगा, ऐसा विश्वास है।

समीक्षक :चंद्रसेन विराट, 121 बैकुंठ धाम कॉलोनी, ओल्ड पलासिया, इंदौर, (म.प्र.)-452018, मो: 093298-95540

ग़ज़ल संग्रह : अपना तो मिले कोई ,ग़ज़लकार : देवमणि पाण्डेय, मूल्य: 150 /-                                                                            
प्रकाशक : अमृत प्रकाशन, 1/5170, बलवीर नगर, गली नं. 8, शाहदरा, दिल्ली- 32, मो-099680-60733,  

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