Friday, August 22, 2014

शायर क़तील शिफाई से देवमणि पाण्डेय की मुलाक़ात

कथाकर धीरेन्द्र अस्थाना, कवि देवमणि पांडेय और शायर क़तील शिफ़ाई (मुम्बई 1995)

              मैं तुझको भूल के ज़िंदा रहूँ ख़ुदा न करे

मरहूम शायर क़तील शिफाई ऐसे लोकप्रिय शायर हैं जिनके कलाम ग़ज़ल गायकों के ज़़रिए दुनिया के कोने कोने में पहँचे और पसंद किए गए। क़तील शिफाई के शेर हमारे मुल्क में भी इतने अधिक लोकप्रिय हुए कि काफी़ लोग उन्हें हिंदुस्तान का ही शायर समझ लेते हैं। इसमें क़तील का कोई कु़सूर नहीं। दरअसल उनका जन्म अविभाजित हिंदुस्तान में ही हुआ। बंटवारे के बाद वे पकिस्तान के हिस्से में पड़ गए।

सन् 1995 में जश्न- ए- मजरूह सुलतानपुरी कार्यक्रम में शिरकत करने के लिए क़तील साहब मुम्बई तशरीफ़ लाए थे। नेहरू सेंटर में आयोजित इस जलसे और मुशायरे में उन्होंने शिरकत की। 77 साल की उम्र में वो जवां दिलों की धड़कन बढ़ाने वाली ग़ज़ल पेश कर रहे थे-
गुस्ताख़ हवाओं की शिकायत न किया कर / उड़ जाए दुपट्टा तो धनक ओढ़ लिया कर।

मुम्बई के शायर क़तील राजस्थानी ने जब इस लोकप्रिय शायर से हमारा तआरूफ़ कराया तो वे इस तरह दिल खोलकर मिले जैसे हमारी वर्षों की जान पहचान हो। अगले ही दिन सुबह हम खार इलाक़े की संगीता बिल्डिंग के टेरेस पर बैठे ज़िंदगी और शायरी पर गुफ़्तगू कर रहे थे । हमने पहले उनसे यही सवाल पूछा-

क़तील साहब, आप प्यार-मुहब्बत पर बहुत लिखते हैं। क्या एक बार की मुहब्बत आप से इतना सारा लिखवा रही है ?

क़तील साहब के चेहरे पर एक स्वाभाविक मुस्कान थिरक उठी- लोग फैशन के तौर पर भी रूमानी शायरी करते हैं मगर उसमें कोई जान नहीं होती। मैंने तो हमेशा तजर्बे से गुज़रकर लिखा। मेरी रूमानी शायरी मेरी आपबीती है। मैंने एक से ज़्यादा बार मुहब्बत की है। अभी भी कर रहा हूँ मगर इस वक़्त मैं जो मुहब्बत कर रहा हूँ वह मेरी आख़िरी मुहब्बत है। पहले की मुहब्बतें ज़्यादातर ट्रेजिक रहीं। अब मेरे चारों और खु़शी ही खु़शी बिखरी हुई है। आमतौर पर मुहब्बत का अंजाम ट्रेजिक ही होता है। मगर-

कैसे न दूँ क़तील दुआ उसके हुस्न को
मैं जिसपे शेर कहके सुख़नवर बना रहा

क़तील साहब की शायरी की भाषा अवाम की भाषा है। उसमें कहीं हिंदी-उर्दू की दीवार नहीं नज़र आती। यही कारण है कि उनकी रचनाएं शहर ही नहीं दूरदराज के गाँव तक पहुँची और वहाँ भी लोकप्रिय हुईं। मिसाल के तौर पर चाँदी जैसा रंग है तेरा सोने जैसे बाल, मोहे आई न जग से लाज,उफ् वो मरमर का तराशा हुआ शफ़्फ़ाफ़ बदन / देखने वाले तुझे ताजमहल कहते हैं आदि रचनाएँ देखी जा सकती हैं । बातचीत में हमारे बीच औपचारिकता की कोई दीवार नहीं थी। इसलिए हमने क़तील साहब से एक मजा़क कर दिया-

क़तील साहब, आप कम पढ़े लिखे हैं इसलिए सरल भाषा में लिखते हैं अथवा आपने जानबूझकर अपनी शायरी की भाषा ईजाद की है ?
क़तील साहब के चेहरे पर मुस्कान खेलने लगी। बोले- भाई मैं अकादमिक रूप से सचमुच कम पढ़ा लिखा हूँ। सिर्फ़ हाईस्कूल तक। मगर उसके बाद मैंने बहुत पढ़ाई की। मैं उर्दू-फा़रसी के शब्दों को लेकर इतनी कठिन शायरी लिख सकता हूँ कि किसी की समझ में न आए। मगर मैं जनता की जु़बान में शायरी करता हूँ ताकि वह जनता की समझ में आए। इसीलिए मुझे जनता का बहुत प्यार भी मिला। दरअसल मैंने बचपन में ग़ज़लें पढ़ने का शौक पाला। अगर उस कच्ची उम्र में शायरी समझ में न आई होती तो मैं शायर ही नहीं बनता। इसलिए खु़द-ब-खु़द मेरी शायरी एक ऐसी सहज भाषा में ढलती चली गई जिसे ज़्यादा से ज़्यादा लोग समझ सकें।

प्यार करने को जो माँगा और हमने इक जनम
ज़िंदगी ने मुस्कुराकर हमको मर जाने दिया


शायर क़तील शिफ़ाई के साथ कवि देवमणि पांडेय

क़तील साहब ने अचानक अपने बचपन की किताब खोल दी। मैंने सोचा अब इन्हें बिना टोके हुए सिर्फ़ सुनना बेहतर है। उन्होंने बचपन की किताब का पहला वरक़ खोला तो वहाँ फ्रंटियर पाकिस्तान की सूबा सरहद पर स्थित एक हराभरा क्षेत्र हरीपुर हजारा नज़र आने लगा। इस हरे भरे मंज़र के बीच उन्हें अपना बचपन साफ़-साफ़ दिखाई पड़ रहा था। वहाँ हरियाली, फूल और लोकगीतों की भरमार है। इसी से लोग उसका नाम हरीपुर समझते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि इसे शहीद हरीसिंह नलवा ने आबाद किया था। उन्हीं के नाम पर इसका नाम हरीपुर हजारा पड़ा। इस गाँव में 25 दिसंबर 1919 को क़तील शिफाई का जन्म हुआ। वहीं सरकारी हाईस्कूल में उनकी शिक्षा हुई। छात्र जीवन में ही शायरी में दिलचस्पी लेने लगे। अपने इस शौक़ के चलते वे विद्यालय की सांस्कृतिक संस्था बज़्म-ए-अदब के सचिव बन गए। सारी सांस्कृतिक गतिविधियों की ज़िम्मेदारी क़तील के कंधों पर आ गई। उस समय तक वहाँ के लोग मुशायरे के नाम से भी वाकिफ़ नहीं थे। क़तील ने वहाँ मुशायरा शुरू करवाया।


क़तील शिफाई एक दौलतमंद परिवार से तआल्लुक़ रखते थे। हाईस्कूल पास करने पर पिता ने पढ़ाई बंद करवा दी। उनका कहना था कि जब घर में दौलत मौजूद है तो पढ़कर क्या होगा? लेकिन पैतृक व्यवसाय क़तील को रास नहीं आया। कुछ साल में ही उन्होंने सब कुछ गँवा दिया।

शायरी में दिलचस्पी के कारण पढ़ने की धुन सवार हुई। क़तील शिफ़ाई कॉलेज तो नहीं जा सके, मगर उन्होंने घर पर ही उर्दू-फा़रसी का सारा क्लासिक पढ़ डाला। विश्व की चर्चित कृतियों के अंग्रेजी अनुवाद पढ़े। वे खु़द कॉलेज भी नहीं जा सके, लेकिन उन पर पी.एच.डी. की गई। क़तील शिफ़ाई को इस बात का अफ़सोस था कि उन्हें आला तालीम हासिल नहीं हुई। दौलत के गु़रूर में पिता ने पढ़ाई बंद करवा दी। महज 17 साल की उम्र में उनकी शादी करके उन पर पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ भी डाल दी गईं। अब तक क़तील शिफ़ाई के शेरों में कच्चापन था। परंपरा को मद्देनज़र रखते हुए उन्होंने अपने एक रिश्तेदार शिफ़ा को अपना उस्ताद बनाया। वे बहुत विद्वान थे। उन्होंने क़तील शिफ़ाई की शायरी की बुनियाद पुख़्ता कर दी। उनकी शायरी में निखार आया। अपने उस्ताद को सम्मान देते हुए उन्होंने अपना तख़ल्लुस शिफ़ाई रख लिया और तब से वे क़तील शिफ़ाई बन गए। अब उनकी शायरी में जा़ती तजर्बे शामिल हुए तो उसे नया रंग मिल गया।

फैला है इतना हुस्न कि इस कायनात में
इंसां को बार-बार जनम लेना चाहिए

गाँव से रावलपिंडी शहर 50 मील दूर था। घर की माली हालत बहुत ख़राब हो गई तो क़तील शिफ़ाई नौकरी के लिए रावलपिंडी चल पड़े। दोस्तों और रिश्तेदारों ने अजीब-अजीब बहानों से पैसे मांगकर क़तील शिफाई को बिलकुल निर्धन कर दिया था। लगभग 20 साल की उम्र में उन्होंने एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में बुकिंग क्लर्क की नौकरी कर ली। तनख़्वाह 60 रूपए प्रतिमाह थी। इस समय तक शायरी में क़तील साहब का नाम चर्चित होने लगा था। लोकप्रिय पत्रिका स्टार के संपादक क़मर जलालाबादी ने उनकी कई रचनाएं छापीं। वे क़तील को बहुत अच्छी जगह देते थे। उन्होंने क़तील को बहुत अच्छी तरह प्रमोट किया। उस समय लाहौर की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका अदब-ए-लतीफ़ की ओर से बुलावा आया तो नौकरी छोड़कर क़तील शिफ़ाई वहाँ सहायक संपादक बन गए। उस समय वहाँ  शायरों, गायकों, आलोचकों और रंगमंच कलाकारों की भरमार थी। क़तील साहब को गाने का शौक़ हुआ तो उन्होंने कुछ समय गाना भी सीखा। मगर शायरी का पलड़ा भारी रहा।

वह प्रगतिशील शायरी का दौर था। अदब-ए-लतीफ़ में कृश्नचंदर,राजेंद्र सिंह बेदी,सआदत हसन मंटो, उपेंद्रनाथ अश्क और इस्मत चुगताई जैसे अफ़सानानिगार छपते थे तो फै़ज़ अहमद फै़ज़,नून मीम राशिद, अहमद नदीम कासमी जैसे प्रगतिशील शायर भी छपते थे। एक प्रकार से यह प्रगतिशीलों की प्रतिनिधि पत्रिका थी। सालभर बाद ही कुछ कारणों से क़तील शिफ़ाई को यह पत्रिका छोड़कर वापस जाना पड़ा। मगर एक फ़िल्म कंपनी उन्हें फिर लाहौर ले आई। दो माह बाद फ़साद शुरू हो गए। फिर उसके बाद देश का विभाजन हो गया। क़तील हमेशा के लिए लाहौर के हो गए।

आजा़दी के बाद क़तील शिफ़ाई ने पत्रकारिता शुरू की। वे मशहूर फ़िल्म साप्ताहिक अदाकार के संपादक बन गए। कुछ समय बाद उन्हें अदब-ए-लतीफ़ ने वापस बुलाया। यह मासिक पत्रिका थी। क़तील एक साथ दोनों काम देखने लगे। उन्होंने विभाजन के पहले संगीतकार श्यामसुंदर की फ़िल्म में पहला गीत लिखा था। विभाजन के बाद सन् 1948 में उन्होंने पहली पाकिस्तानी फ़िल्म तेरी याद में गीत लिखे। इस तरह उन्हें पाकिस्तान का पहला फ़िल्म गीतकार होने का भी श्रेय प्राप्त है।

क्या विभाजन के बाद क़तील शिफ़ाई का मन भारत आने को नहीं हुआ ?
उदास लहजे में उन्होंने बताया- विभाजन के बाद डेढ़ साल तक साहिर लुधियानवी पाकिस्तान में थे। वे आने लगे तो मैं उनके साथ मुम्बई आना चाहता था। मगर उस वक़्त एक लड़की से मेरा इश्क़ चल रहा था। लड़की अगर हिंदुस्तान आती तो यहाँ उसके लिए काफी़ ख़तरे थे। इस तरह इश्क़ ने मुझे रोक लिया और मैं वहीं का वहीं रह गया।
वो दिल ही क्या तेरे मिलने की जो दुआ न करे
मैं तुझको भूल के ज़िंदा रहूँ, ख़ुदा न करे

क़तील शिफ़ाई ने लगभग 300 फिल्मों में गीत लिखे । इनमें चार-पाँच भारतीय फ़िल्में भी शामिल है। महेश भट्ट की फिर तेरी कहानी याद आईऔर नाराज़ फ़िल्मों में भी उनके गीत हैं। फ़िल्मों में व्यस्त होने के बावजूद वे लगातर ग़ज़लें भी लिखते रहे। क़तील साहब की 20 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी किताबों के नाम काफी़ दिलचस्प होते हैं, मसलन- हरियाली, गजर, जलतरंग, झूमर, छतनार, गु्फ़्तगू, अबाबील, बरगद, घुंघरू, समंदर में सीढ़ी आदि।

अदब में इतना योगदान करने पर भी आलोचकों ने क़तील शिफ़ाई की उचित नोटिस क्यों नहीं ली ?

क़तील साहब कहते हैं- मैंने कभी आलोचकों की परवाह नहीं की बल्कि हमेशा पाठकों की परवाह की। आलोचकों के पसंदीदा शायरों का एक एडिशन भी पूरा नहीं बिकता और मेरी किताबों के दस-दस एडिशन बिक जाते हैं। पढ़ने वाले सच्चे हैं। मुझे उनकी पसंद पर भरोसा है। मुझे फ़िराक़ गोरखपुरी, फै़ज़ अहमद फै़ज़, अहमद नदीम कासमी और जोश मलीहाबादी जैसे बड़े अदीबों से तारीफ़ हासिल हुई। हिंदुस्तान के जाने माने समीक्षक गोपीचंद नारंग ने मेरी शायरी को अच्छी तरह समझा और निष्पक्ष समीक्षा की। हमारे मुल्क पाकिस्तान में आलोचकगण भूमिका पढ़कर समीक्षा लिखते हैं। यहाँ हिंदुस्तान में नारंग साहब ने पढ़कर लिखा। इस मामले में खुशवंत सिंह भी सच्चे और खरे आदमी हैं। उन्होंने मुझ पर जो कुछ लिखा मैं उसका क़ायल हूँ।

मैं तो प्रगतिशील आंदोलन से जुड़ा रहा, मगर अपनी चाल हमेशा अलग रही। मैंने मुक्का नहीं ताना। नारा नहीं लगाया। अगर मेरी महबूबा ग़रीबी की वजह से मुझे छोड़ देती है, तो मैं विश्लेषण करूँगा। इसकी वजह में भी व्यवस्था होती है। यह लिखना भी प्रगतिशील है। खु़द को प्रगतिशील कहने वाले कई लेखकों ने खेत-खलिहान और गाँव नहीं देखे। कारखा़ना, झोपड़पट्टी और मज़दूर बस्ती नहीं देखी। मगर सब पर लिखते हैं। मैं तो सिर्फ़ अपने अनुभव लिखता हूँ। मेरे ख़्याल से मंटो सबसे ज़्यादा प्रगतिशील हैं जो वेश्याओं पर भी लिखते हैं और सच्चा लिखते हैं।

अचानक क़तील साहब को कुछ याद आ गया। वे उठकर कमरे के भीतर गए और अपनी एक किताब लेकर आए। इसकी भूमिका फै़ज़ अहमद फै़ज़ ने लिखी थी। फै़ज़ साहब के शब्दों में-क़तील शिफ़ाई तरक़्क़ीपसंद काफ़िले वालों के साथ भी हैं और उनसे जुदा भी। अगर संवेदना को लिखा जाए तो वे अपने साथियों के हमराह हैं। लेकिन उनके कहने का अंदाज अपना है। क़तील ने किसी प्लेटफार्म पर खड़े होकर मौलवी बनकर अपने चाहनेवालों को सम्बोधित नहीं किया बल्कि फ़र्श पर उनके साथ बैठकर मीठी-कड़वी बातें की हैं। न कभी गु़स्सा किया, न कभी मुक्का ताना, बल्कि दर्द को मुहब्बत की जु़बान देकर सच बयान किया। जो कुछ कहा अपने दिल की गवाही पर कहा। उन्होंने सीधे सादे लफ़्ज़ों में गहरी बातें कीं। शोर नहीं मचाया। धीमे सुर लगाए। इसलिए उनका नग़मा कभी बेसुरा नहीं होता। उन्होंने हलके रंगो का इस्तेमाल किया। इसलिए कोई नक़्श आँखों में खटकता नहीं। यही फ़न और शाख़्सियत उनकी नुमायाँ खू़बी है।

अवाम में क़तील साहब की ज़बरदस्त लोकप्रियता को देखते हुए सन 1994 में उन्हें पाकिस्तान का सबसे बड़ा अदबी अवार्ड प्राइड ऑफ परफार्मेंस दिया गया। इसके तहत 50 हजा़र रूपए और गोल्डमेडल दिया जाता है।

क्या यह अदबी अवार्ड क़तील साहब को विलंब से मिला ?
वे फरमाते हैं- मैंने कभी पुरस्कार के लिए सरकारी इदारे पर दबाव नहीं डाला। अपनी कोई लॉबी नहीं बनाई। यह पुरस्कार ऐसे लोगों को भी मिल चुका है, जो मौलिक शायर नहीं हैं। मुझे तो यह 20 साल पहले मिल जाना चाहिए था। अगर मैं इसे नहीं लेता तो सरकार बदनाम होती। मुल्क की इज़्ज़त रखने के लिए मैंने यह अवार्ड ले लिया। आदमी अवार्ड से नहीं काम से पहचाना जाता है। मैं आज भी शायरी का छात्र हूँ। मुझे और बेहतर लिखना है। बुलंदी की तरफ़ जाना है।

क्या पकिस्तान को यह बुरा नहीं लगता कि आप हिंदुस्तानी फिल्मों के लिए भी गीत लिखते हैं ?
क़तील साहब मुस्कराते हैं- बात प्यार से बनती है, नफ़रत से नहीं । दोनों मुल्कों में ऐसे भी लोग हैं जो नहीं चाहते कि हम पड़ोसी की तरह रहें। हमारी सरकार हिंदुस्तान से आलू खरीदती है। मैं गीत लिखता हूँ। दोनों दोस्ती की बात है। मैं प्यार में साथ हूँ,नफ़रत में नहीं।

कहा जाता है कि पाकिस्तान में जम्हूरियत (प्रजातंत्र) अब तक नहीं आई ?’

क़तील साहब के चेहरे से मायूसी छलकने लगी- पकिस्तान की आधी उम्र मार्शल लॉ की लानत में गुज़र गई। जम्हूरियत जब भी आती है लोग उसके टुकड़े कर देते हैं। जनता का काम प्रजातंत्र से ही चलेगा, फौ़जी ताक़त से नहीं। किसी भी मुल्क का जम्हूरियत के बिना गुजा़रा नहीं हो सकता। मुझे उम्मीद है कि एक दिन वहाँ भी जम्हूरियत आएगी़।

भारत और पकिस्तान में हमेशा विरोध की राजनीति क्यों चलती है ?
क़तील साहब के माथे पर सोच की शिकन पड़ गई- अब वो लीडर नहीं रहे जो मामला सुलझाएं। जिस नारे से कुर्सी मज़बूत रहती है, लीडर वही नारा लगाते हैं। मुझे उस दिन का इंतजा़र है जब दोनों देशों के दो नेता छोटे-मोटे झगड़े मिटाने के लिए एक-दूसरे की ओर हाथ बढ़ाएंगे। मेरी तमन्ना है कि मैं उस समय ज़िंदा रहूँ और दोनों नेताओं को हार पहनाऊँ।

दोनों देशों की अवाम एक दूसरे के ख़िलाफ़ नहीं हैं। सियासी लोगों को जिस वक़्त जो नारा सूट करता है वे वही लगाते हैं। पता नहीं कुछ लोगों को क्यों एक दूसरे के क़रीब आने में तकलीफ़ होती है। फा़यदा झगड़े में नहीं है, प्यार में है। फौ़जी साजो-सामान कम होगा तो वह पैसा जनता के काम आएगा। उससे विकास होगा। जर्मनी और जापान का उदाहरण हमारे सामने है। उन्होंने अपने काम से दुनिया का दिल जीता। कश्मीर का मसला तो आधी सदी पुराना हो गया। मैं रायशुमारी का विरोध नहीं करता, मगर वहाँ रायशुमारी तीन मुद्दों पर होनी चाहिए (1) क्या वे लोग भारत में रहना चाहते हैं ? (2) क्या वे लोग पकिस्तान में रहना चाहते हैं ? (3) क्या वे इन दोनों से अलग स्वतंत्र रहना चाहते हैं ?

क़तील साहब से मैंने उनसे एक तल्ख़ सवाल पू्छा- क्या पकिस्तान में कठमुल्लापन हावी है ?
हाँ! क़तील साहब ने स्वीकार किया। वहाँ इस्लाम के नाम का इस्तेमाल करके ज़िया साहब मुल्लाओं को अवाम के सिर पर तलवार की तरह लटका गए। जब वो दौर ख़त्म होगा, कट्टरपन और तानाशाही ख़त्म होगी, तो वहाँ इंसानियत वाला इस्लाम आएगा। जहाँ जम्हूरियत होगी, वहीं इस्लाम होगा । वहाँ मुल्लाओं वाला इस्लाम चल रहा है। मगर अंदर ही अंदर एक लावा भी खौल रहा है। इन्हें किसी दिन वह शिकस्त देगा। ज़िया साहब अपने फा़यदे के लिए मुल्लाओं को बहुत ताक़त दे गए हैं। मुल्लाओं में कुछ अच्छे लोग भी हैं, मगर उनकी संख्या आटे में नमक जितनी है। उनकी कोई सुनता नहीं। कट्टरपंथियों ने कु़रआन में से न जाने कैसी-कैसी चीज़ें ढूँढकर तानाशाही को इस्लाम सम्मत सिद्ध किया।

आपको हिंदुस्तान आकर कैसा लगता है ?
क़तील साहब के चेहरे पर मासूमियत छा जाती है- बहुत अच्छा लगता है। मैं यहाँ अपने ख़्याल के लोगों से मिलता हूँ। दोस्तों में रहता हूँ। उनका साथ बहुत अच्छा लगता है। मुझे तो वीसा भी पुलिस जाँच से मुक्त मिलता है, क्योंकि सबको इस सच्चाई का पता है-
उनका जो काम है वो अहले-सियासत जानें
मेरा पैगा़म मुहब्बत है जहाँ तक पहुंचे ...... ( जिगर )

-देवमणि पाण्डेय


2 comments:

  1. wah devmani sahab khoob ! khush kar ditta ! ye abhi tak kahan tha ?

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  2. दोनों देशो की आवाम एक दुसरे के खिलाफ नहीं है।
    सियासत अपनी सहूलियत, के मुताबिक कुच्छ ओर ही चाहती है। हम तो है प्रेमी शेरो-शायरी के नगमो-निगार है। बहुत अफ़सोस होता है। जब हमारे अपने मसले सियासत की चक्की में पिसने लगते है। गलती हमारी है,हम ने ऐतबार किया सियासत के रखवालों पर। ओर उन्हों ने उजाड़ दिए गुलिस्तान के बागबानो को।

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