काव्य मंचों के नायक गोपालदास नीरज : देवमणि पाण्डेय
जनवरी 1996 में मुम्बई में नीरजजी को परिवार पुरस्कार से सम्मानित
किया गया। सम्मान समारोह
के संचालन की ज़िम्मेदारी मु़झे सौंपी गई थी। दूसरे दिन सुबह होटल में नीरजजी से एक
आत्मीय मुलाक़ात हुई। तीन घंटे की इस अंतरंग वार्ता में नीरजजी ने ख़ुद को एक किताब की
तरह खोल कर रख दिया। बचपन से लेकर जवानी तक का उनका सफ़र बहुत संघर्षपूर्ण रहा। शुरूआत में उन्होंने पूर्ति
विभाग, दिल्ली में भी टायपिस्ट की नौकरी की। आगे चलकर उन्होंने कामयाबी
और लोकप्रियता की जिन बुलंदियों को छुआ वह ख़ुद में एक मिसाल है। आइए, नीरजजी की इसी
जीवन यात्रा का अवलोकन करें।--------देवमणि पांडेय
इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में
तुमको लग जाएंगी सदियाँ हमें भुलाने में
वरिष्ठ गीतकार पद्मविभूषण गोपालदास नीरज को हाल ही में मुम्बई के एक विशिष्ट आयोजन में ये पंक्तियां गुनगुनाते हुई सुना। वे 90
साल के हो गए हैं मगर न तो उनके चेहरे पर थकान का अक्स था और न ही आवाज़ में शिथिलता।
उनकी पुरकशिश आवाज़, भाव भरे गीत और दिलकश अंदाज़ पर श्रोता समुदाय मुग्ध था। उनको
सुनते हुए और उनका जलवा देखते हुए बरबस उनकी ये पंक्तियाँ
याद आ गईं।
आज
भी उसके लिए होती हैं पागल कलियाँ
जाने
क्या बात है नीरज के गुनगुनाने में
जिस तरह युवा पीढ़ी को नीरज का कवि व्यक्तित्व आकर्षित करता है,
ठीक उसी तरह 16 वर्ष की किशोरावस्था में बलवीर सिंह ‘रंग’ की ख्याति से सम्मोहित नीरज एक कवि सम्मेलन
में पहुँच गए थे। नीरज की आँखों में आज भी वह मंज़र ताज़ा है जब उन्होंने हज़ारों
तालियों की गड़गड़ाहट के बीच ‘रंग’ को कविता पढ़ते हुए देखा था-
हमने
गुलशन की ख़ैर माँगी है / आशियाना रहे रहे ना रहे।
रंग
को अंजुमन से निस्बत है / आना जाना रहे रहे ना रहे।
यह वह दौर था जब मधुर गायिकी के लिए एटा के एक विद्यालय में नीरज
को ‘सहगल’ की उपाधि मिल गई थी।
मगर उनके दिल ने ‘रंग’ के रास्ते पर चलने के
लिए ज़ोर डाला। कहीं भीतर से आत्माविश्वास ने सर उठाया- अगर कोशिश करूँ तो मैं भी
रंगजी की तरह लिख सकता हूँ। उन्हीं की तरह मंच लूट सकता हूँ।
गोपालदास नीरज का जन्म: 4 जनवरी 1925 को ग्राम: पुरावली, जिला इटावा में हुआ। नीरज
जब छ: वर्ष के थे तब उनके पिता गुज़र गए। माँ नाना के पास इटावा चली गई। उनके पास
इतने पैसे नहीं थे कि वे नीरज को स्कूल भेजतीं। मजबूरन नीरज को एटा में बुआ के पास
रहना पड़ा। इस तरह बचपन में ही वे माता-पिता के प्यार से वंचित हो गए। उनके कोई बहन
भी नहीं थी। इन स्थितियों ने नीरज को अंतर्मुखी बना दिया।
उस वक़्त बच्चन की धूम थी. उनके ‘एकांत
संगीत’ और ‘निशा निमंत्रण’ को पढ़कर नीरज के भीतर की पीड़ा घनीभूत हो गई।
एक दिन विषाद के ये बादल कविता बनकर उमड़ पड़े। सन 1941 में यानी 16 वर्ष की उम्र
में नीरज के कंठ से पहला गीत फूटा-
मुझको
जीवन का आधार नहीं मिलता है।
आशाओं का संसार नहीं मिलता है।
यह गीत ‘जागरण’ के दीपावली विशेषांक में प्रकाशित हुआ । उस समय की नीरज की सारी रचनाएँ
विषादपूर्ण हैं। सन 1942 में नीरज ने प्रथम क्षेणी में हाईस्कूल पास किया। मगर
पढ़ाई छोड़कर वे माँ के पास पहुँच गए। वे अपने बड़े और छोटे भाइयों को पढ़ाना
चाहते थे। इसके लिए उन्होंने कचेहरी में टायपिंग का काम पकड़ा तथा शाम को ट्यूशन
पढ़ाना शुरू किया। 4 नवम्बर 1942 को सरकारी टायपिस्ट बनकर नीरज पूर्ति विभाग दिल्ली चले गए। यह कठिन संघर्ष का दौर था। नीरज का वेतन 67 रुपए था। 30
रुपए माँ को भेज देते थे। 4 रूपए बरसाती (शेड) में सोने का किराया देना पड़ता। शेष
रूपयों से सिर्फ़ एक वक़्त का खाना खाया जा सकता था। नीरज दोपहर में दो बजे खाते।
रात में खाली पेट सो जाते।
दिल्ली में आर्यसभा का कविसम्मेलन हुआ। वरिष्ठ कवि करुणेश संयोजक
थे। युवा नीरज ने उनसे निवेदन किया तो शुरूआत में एक गीत पढ़ने का अवसर मिला। पहले
गीत से ही नीरज छा गए। कुल पाँच गीत पढ़ने पड़े। पाँच रूपए मिले। यह काफ़ी बड़ी रकम थी। तब एक रूपए में सात
सेर गेहूँ मिलता था। दिल्ली में नीरज का नाम सुगंध की तरह फैल गया।
फूल डाली पर गुंथा ही झर गया / घूम आई गंध पर संसार
में।
दिल्ली, मेरठ, गाज़ियाबाद यानी आसपास नीरज को बुलाया जाने लगा।
बंगाल के अकाल के समय 1943 में ‘मारवाड़ी रिलीफ कमेटी’ ने
कलकत्ता में तीन दिनों का अखंड कवि सम्मेलन किया। करूणेश जी से किराया उधार माँगकर
नीरज कलकत्ता पहुँच गए। मानदेय 51 रूपए तय था। इस कवि सम्मेलन में मेघराज मुकुल, गोपाल सिंह नेपाली और
कई दिग्गज कवियों के साथ युवा नीरज को काव्य पाठ का सुअवसर मिला। वे इतना अधिक
पसंद किए गए कि ऑटोग्राफ लेने वालों की भीड़ लग गई। तब नीरज को पता ही नहीं था
आटोग्राफ कैसे दिया जाता है।
शिमला में गाँधीजी और जिन्ना की मीटिंग हुई। नीरज ने गीत लिखा- आज मिला गंगाजल, जल ज़मज़म का। शायर हफ़ीज जालंधरी इस गीत से इतने प्रभावित
हुए कि उन्होंने नीरज को बुलाकर ‘सांग पब्लिसिटी
अर्गनाइजेशन दिल्ली में हिंदी लिटरेरी सहायक बना दिया। अर्श मलसियानी उर्दू सहायक
थे। पटना में दिनकर जी इसी संस्थान में डायरेक्टर थे। कवियों और शायरों को इसमें
प्रश्रय दिया जाता था ताकि वे सरकारी योजनाओं के प्रचार के लिए कविताएँ लिखें ।
मगर उस वक़्त नीरज लिख रहे थे-
मैं विद्रोही हूँ जग में विद्रोह कराने आया हूँ,
क्रांति क्रांति का सरल सुनहरा राग सुनाने आया हूँ।
देहरादून के एक कवि सम्मेलन में गए तो डिप्टी कलेक्टर रसीद अहमद
बुखारी ने बताया-सीआईडी रिपोर्ट के मुताबिक़ आप सरकार का पैसा लेकर सरकार के ख़िलाफ़
प्रचार कर रहे हैं। वापसी के सारे दरवाजे बंद हो चुके थे। वहाँ से चलकर नीरज
कानपुर पहुँचे। डीएवी कालेज के चेयरमैन डॉ.ब्रजेंद्र स्वरूप के सहायक बन गए। 4 माह
बाद वाल्कार्ट ब्रदर्स (वोल्टास) में आशुलिपिक की नौकरी मिल गई। सन् 1949 में
प्रायवेट परीक्षा देकर प्रथम श्रेणी में इंटर पास किया। नौकरी के साथ-साथ प्रथम
श्रेणी में बी.ए.भी पास किया। 1953 में एम.ए.में भी प्रथम श्रेणी प्राप्त हुई।
इसके बाद जिला सूचना अधिकारी बन गए। कार, टेलिफ़ोन,चपरासी यानी सब सुविधाएँ मिलीं।
मगर नौकरी रास नहीं आई तो इस्तीफ़ा दे दिया। बेकारी के दो सालों में पूरे देश में
धूम-धूमकर कवि सम्मेलनों में शिरकत की। 1955 में मेरठ कॉलेज अलीगढ़ ज्वाइन किया।
1970 में मंच और फिल्मी व्यस्तता के कारण हमेशा के लिए नौकरी छोड़ दी।
सन् 1944 में नीरज की पहली पुस्तक प्रकाशित हुई थी। तब से उनके 24
संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। सन् 1944 में आत्माराम ऐण्ड संस ने तीन खंडों में
नीरज रचनावली का भी प्रकाशन किया। नीरज ऐसे कवि हैं जो काव्य पुस्तकों को आलमारी
की कारा से बाहर ले आए। उनकी लोकप्रियता विदशों में पहुँची तो अमेरिका, लंदन,
आस्ट्रेलिया आदि के अलावा पाकिस्तान में भी उन्हें बुलाया गया।
इस देश का सबसे बड़ा मुशायरा ‘आलमी
उर्दू कांफ्रेंस’ ने 1989 में दिल्ली में आयोजित किया था।
दुनिया भर से 75 शायरों ने इसमें शिरकत की थी। इस मुशायरे में गीतकार नीरज को
11000/- रूपए का पुरस्कार देकर सम्मानित किया गया था। सन् 1960 में ‘साहित्य संगम’
मुम्बई ने ‘नीरज गीत गुंजन’
कार्यक्रम आयोजित किया। इसमें तत्कालीन मुख्यमंत्री वाय.वी.चव्हाण के हाथों नीरज
को 5 हज़ार रूपए का पुरस्कार प्रदान किया गया। उस वक्त़ इस धनराशि के महत्व का
अंदाज़ा आप इसी से लगा सकते हैं कि इसी रक़म से नीरजजी ने 15 दिन के अंदर अलीगढ़
में अपना शानदार मकान बनवा लिया था।
पिछले पाँच दशकों से अपनी रचनाओं के ज़रिए आम आदमी को ज़ुबान
देनेवाले लोकप्रिय कवि नीरज की रचनाओं में जमाने का दुख-दर्द साँस लेता है। हिंदी
कविता में नीरज एक ऐसा नाम है जिसने समीक्षकों और आलोचकों की परवाह न करते हुए
हमेशा अपने दिल की आवाज़ सुनी। इस आवाज़ की अभिव्यक्ति से कविता का जो ख़ूबसूरत
अक्स बना उसमें कवि की धड़कनों के साथ जमाने भर की धड़कनें भी शामिल हैं। जनता का यही
जुड़ाव कवि की पूँजी है-
नीरज से बढ़के और धनी कौन है यहाँ / उसके ह्रदय में
पीर है सारे जहान की।
लेखन की एक विशिष्ट शैली के साथ ही नीरज के पास अदायगी का एक अदभुत
अंदाज़ भी है। पिछले पाँच-छः
दशकों में उनको दीवानगी की हद तक चाहनेवालों का एक विशाल वर्ग तैयार हुआ। हिंदी
काव्य मंच पर ऐसी विशिष्ट उपलब्धि आज सिर्फ़ नीरज के पास है।
नीरज को यूँ तो प्रेम का गायक कहा जाता है मगर उनके गीतों और
ग़ज़लों में ज़माने की तल्ख़ियों के काले साए भी मौजूद हैं। उन्हें सुनते हुए लगता
है जैसे उनकी आवाज़ में हमारे दिल की व्याकुल पुकार भी शामिल है। उनका हर सपना एक
नए रंग-रूप में हमारे सामने आता है। उसमें कहीं तन-मन को पुलक से भर देने वाली
सुबह की लालिमा है तो कहीं गहन अवसाद में भिगो देने वाली साँझ की उदासी है।
नीरज के यहाँ मिलन के मधुर क्षण कम हैं, विरह की टीस और जुदाई की
तड़प ज्य़ादा है। दुख और उदासी की ऐसी मार्मिक स्थितियों की अभिव्यक्ति के लिए वह
जो प्रतीक चुनते हैं वे हमेशा लौकिक जगत के ख़ूबसूरत एहसास से ताल्लुक़ रहते हैं।
एक दृश्य देखिए -
दर्द जब तेरा पास होता है , अश्क पलकों पे यूँ
मचलते हैं।
जैसे बरखा से भीगे जंगल में, क़ाफ़िले जुगनुओं के
चलते हैं।
नीरज काव्यमंचों पर गए मगर अपनी शर्तों पर। पूरे देश के काव्य मंचों
पर गिरावट आई मगर पतन की यह आँधी नीरज को अपने साथ बहा नहीं पाई। अपने चाहने वालों
के लिए नीरज को घटिया मंचों पर भी जाना पड़ा। मगर कभी उन्होंने घटियापन का साथ
नहीं दिया। उन्होंने हमेशा अपना स्तर बनाए रखा। किसी नेता या मंत्री को खु़श करने
की कोशिश कभी नहीं की। नीरज की अपनी दिशा और अपनी जगह हैं। बच्चन के बाद बच्चन की
परंपरा के वे एकमात्र ऐसे कवि हैं जिसमें साहित्यिक परिपक्वता और मंचीय कौशल एक
साथ मौजूद हैं।
यह सच है कि कवि सम्मेलनों का कवि प्रसाद और निराला नहीं बन सकता।
यह भी सच है कि कवि सम्मेलनों में ‘कामायनी’ नहीं मधुशाला पढ़ी जाती है। फिर भी, जिस तरह
साहिर और शैलेंद्र के योगदान को महज फ़िल्मी गीत कहकर नकारा नहीं जा सकता, ठीक उसी
तरह नीरज की मंचीय प्रस्तुति के बावजूद उनके साहित्यिक पक्ष को अनदेखा नहीं किया
जा सकता। नीरज के साहित्य में मीरा का दर्द है, सूर की प्यास है, तुलसी की
विन्रमता है और इसी के साथ कबीर का फक्कड़न भी है। नीरज ने बौद्धिकता का मायाजाल
रचने के बजाय भावनाओं की ऐसी उदात्त धारा प्रवाहित की जिसने हमारे मन-प्राणों को
पवित्रता,शीतलता और ताज़गी से भर दिया।
नीरज ने फ़िल्म संगीत को कारंवा गुज़र गया...रंगीला रे...आदि
दर्ज़नों सुपरहिट गीत दिए मगर फ़िल्मी चकाचौंध कभी उन पर हावी नहीं हो पाई। एक
यायावर की तरह उनके पैर सारी दुनिया नापते रहे और उनके दिल से हमेशा यही सदा आती
रही-
मैंने चाहा नहीं कि कोई आकर मेरा दर्द बँटाए।
बस ये ख्व़ाहिश रही कि मेरी उमर ज़माने को लग जाए।
देवमणि पांडेय
: 98210-82126
श्री गोपालदास सक्सेना 'नीरज' जी के कवि जीवन का सुंदर परिचय देने के लिए धन्यवाद!!
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