Thursday, January 31, 2013

अपना तो मिले कोई : समीक्षा - सुरेश नीरव


अपना तो मिले कोई : समीक्षा - सुरेश नीरव

अपने दौर की जद्दोजहद को बयां करती गजलें

'अपना तो मिले कोई' देवमणि पांडेय का ताज़ा ग़ज़ल संग्रह है। संग्रह की ग़ज़लें उर्दू की चाशनी और हिंदी की मिठास से लबरेज़ ऐसी ग़ज़लें हैं जो पुरअसर जज़्बात और एहसास की शगुफ़्तगी से बाशऊर लैस हैं। औसत हिंदी ग़ज़लकारों से अलग देवमणि पांडेय ने बहरों की बारीक जानकारी के बूते अपनी ग़ज़लों को बेवज़नी की चूक से तो बचाया ही है, साथ ही साथ शब्दों को इस अंदाज़ से ग़ज़लों में पिरोया है कि वे हर ज़ाविए से ग़ज़ल की ज़ुबान का हिस्सा बन जाते हैं। ख़ास बात ये भी है कि ज़िंदगी का शायद ही कोई तज़रुबा ऐसा हो, जहाँ तक इनके अशआर पहुँचे न हों। ये ग़ज़लें बिना किसी शोर-शराबे के अपना काम कर जाती हैं। एक मुकम्मिल ख़ामोशी के साथ। ऐसी ख़ामोशी, जो एक-एक लफ़्ज़ को इतनी चुप्पी से पीती है कि किसी आवाज़ का कोई दख़ल इसे सहन नहीं।  हसास की ज़मीन पर एक बामानी ख़ामोशी की टहल हैं ये गजलें, जो तनहाई से बतियाती हैं।

ऐसा लगता है जैसे 'अपना तो मिले कोई' के ज़रिये देवमणि पांडेय ने लम्हों की हथेली पर तमाम मुख़्तलिफ़ ज़ावियों के साथ जब और जहाँ जैसे भी दस्तख़त किए, उन दस्तख़तों के नक़्शो-निशान ही कहीं धीरे से शाइरी बन गए हैं। और वो भी उन हालात में जहाँ- 'जिस्म पर है लिबास काग़ज़ का /  हाथ में इक दिया सलाई है'। अपने दौर की जद्दोजहद को शाइस्तगी और ख़ुद्दारी के साथ इशारों की ज़ुबान में कह देने का एक अलग अंदाज़ तो इन ग़ज़लों में है ही, इसके साथ रदीफ़ों की ऐसी झाँझरें भी हैं जिसकी नग़्मगी, गिनायत और थरथराहट सोच में मुहावरेबाज़ी बनकर ढल जाती है - 'क्या कहें कुछ इस तरह अपना मुकद्दर हो गया / सर को चादर से ढका तो पाँव बाहर  हो गया'। असल में ये गजलें छीजते रिश्तों में अपनापन  तलाशने की एक कोशिश हैं, जो लफ़्ज़ों के ज़रिये इंसानियत की पहरेदारी के लिए बेहद ज़रूरी भी है।

समीक्षा : सुरेश नीरव : आई-204. गोविंदपुरम
गाजियाबाद (. प्र.)-201 013 , Mob. 98102-43966

ग़ज़ल संग्रह  : अपना तो मिले कोई , ग़ज़लकार : देवमणि पाण्डेय    , मूल्य: 150

प्रकाशक : अमृत प्रकाशन, 1/5170, बलवीर नगर , गली नं. 8, शाहदरा, दिल्ली- 110 032,  मो-099680-60733

अपना तो मिले कोई : समीक्षा - हिदायतउल्लाह खान

अपना तो मिले कोई : समीक्षा - हिदायतउल्लाह खान
इक समंदर पी चुकूँ और तिश्नगी बाक़ी रहे
कहते हैं अगर कोयले से पत्थर पर शेर लिख दिया जाय तो अपना असर दिखा देता है, लेकिन  बदलाव के इस दौर में किताबों के रंग-रूप पर ज़्यादा ध्यान दिया जाने लगा है और वो सब दिख रहा है जिससे किताबें आज़ाद रहती आई हैं। मुंबई के शायर देवमणि पांडेय की नई किताब 'अपना तो मिले कोई' को जिस तरह से उसे पेश किया गया है, ऐसा शायरी की किताबों में कम ही देखा गया है। ख़ासकर कवर पेज़। देव को पता था कि सिर्फ़ रंग-रूप से काम नहीं चलेगा। इसलिए अंदर वो इतना देने में कामयाब रहे है  कि उनकी किताब को लाइब्रेरी में जगह दी जा सकती है। फिर उनके शेर दिमाग़ के क़ैदख़ाने में भी जगह बना लेते हैं-

इस जहां में प्यार महके ज़िंदगी बाक़ी रहे
ये दुआ माँगो दिलों में रोशनी बाक़ी रहे
दिल में मेरे पल रही हैं, ये तमन्ना आज भी
इक समंदर पी चुकूँ और तिश्नगी बाक़ी रहे
आदमी पूरा हुआ तो देवता हो जाएगा
ये ज़रूरी है कि उसमें कुछ कमी बाक़ी रहे

देवमणि पांडेय की ख़ूबी यह है कि वो हिंदी ग़ज़ल को उर्दू दुशाला ओढ़ाने में कामयाब रहे हैं। उनके पास उर्दू अदब का हर फ़न मौजूद है, जिसका उन्होंने सलीक़े के साथ इस्तेमाल किया है और वो हिंदी-उर्दू के माँ-मौसी वाले रिश्ते को मज़बूत करते हैं। विषय के साथ कहने का अंदाज भी सराहानीय है।

असल में सीखने के जो कारगर तरीके हैं, उनमें सोहबत अहम है और शुरू से ही देवमणि पांडेय को उस्ताद शायर ज़फ़र गोरखपुरी का साथ मिला है, जिसका असर उनकी किताब में भी दिखाई देता है और शयरी में भी । वैसे वे निदा फ़ाज़ली से भी दूर नहीं हैं और यही वजह है कि वो  सिर्फ़ शायरी नहीं कर रहे, फिल्मों में गीत भी लिख रहे हैं। 'पिंजर' के गीत 'चरखा चलती माँ ' को इनाम मिल चुका है, इसका ज़िक्र किताब के  पिछले कवर पर भी है।

देवमणि पांडेय ने सौ ग़ज़लों से किताब पूरी की है और सब जगह कुछ शेर ऐसे मिलते हैं, जो आगे बढ़ाते हैं और किताब मुकम्मल हो जाती है। देवमाणि पांडेय की शायरी में जहाँ ख़ुद्दारी का अहसास होता हैं, वही वो रिश्तों को गूँथने में कामयाब हैं। ज़फ़र गोरखपूरी के अलावा शायर अब्दुल अहद साज़ भी किताब का हिस्सा बने हैं। वे लिखते हैं - 'देवमणि पांडेय की ग़ज़लों में जो कशिश है, उसका कारण उर्दू-हिंदी के मिले-जुले रचाव और सुभाव को लिए हुए हिंदुस्तानी ग़ज़लें हैं, मगर इसके अलावा उनके यहाँ शब्दों की तरतीब, लहजे की सफाई-सुथराई और अपनी बात को बिना ग़ैर ज़रूरी उलझन पैदा किए पाठक के दिलो-दिमाग़ तक पहुँचा देने का सलीक़ा भी है।'  इसकी वजह से बात आसानी से पढ़ने वालों के ज़हन तक पहुँच जाती है। इस किताब पर सिर्फ़  दो शायरों ने लिखा है, पर वो इतना है कि किसी और तहरीर की ज़रूरत नहीं हैं।   

ज़फ़र साहब लिखते हैं कि देवमणि पांडेय की ग़ज़लें आम हिंदी ग़ज़लों से हर सतह पर बड़ी हद तक मुख़्तलिफ़ हैं। उन्होंने अपनी ग़ज़ल की बुनत  और तख़लीक़ी रवैयों में उर्दू से इस्तिफ़ादा किया है। वो नई नस्ल के ग़ज़लकारों में ऐसे  नौजवान ग़ज़लकार हैं, जिन्होंने हिंदी और उर्दू के अटूट रिश्ते से फ़ैज़ उठाया है और ज़फ़र साहब इसे मुबारक अमल भी लिख रहे हैं। उन्होंने देव के कुछ शेर भी लम किए है --

तन्हाई की क़ैद से ख़ुद को रिहा करो बाहर निकलो
हो सकता है भर वे कोई दिल का जख्म पुराना भी

मुमकिन हो तो खिड़की से ही रोशन कर लो घर-आँगन
इतने चांद-सितारे लेकर फिर आएगी रात कहाँ

कितने फ़नकारों ने अब  तक जज़्बों को अलफाज़ दिए
अपने गम का सरमाया ही शायर की पहचान हुआ
देवमणि पांडेय की इस किताब की कीमत डेढ़ सौ रूपए है और इसे तरतीब हैदर नजमी ने दिया है। इससे पहले उनकी किताब 'खुशबू की लकीरें' भी आ चुकी है। कुल मिलाकर देवमणि पांडेय का यह गुलदस्ता ख़ुशबू देने में कामयाब है और उनके ज़रिये हिंदी-उर्दू ग़ज़ल के बीच जो  रिश्ता मज़बूत हो रहा है, वो इस किताब का असल सरमाया है।

समीक्षा : हिदायतउल्लाह खान : (सह सम्पादक:रविवार), 210 कारपोरेट हाउस
बी ब्लॉक, द्वितीय मंज़िल, 169 आरएनटी मार्ग, इंदौर (.प्र.)-452 001, फोन: 93021-26777
ग़ज़ल संग्रह : अपना तो मिले कोई , शायर : देवमणि पाण्डेय, क़ीमत : 150 रूपए
प्रकाशक : अमृत प्रकाशन, 1/5170, बलबीर, गली नं.8, शाहदरा, दिल्ली-110032, फोन : 099680-60733

अपना तो मिले कोई : समीक्षा - रमेश यादव


अपना तो मिले कोई : समीक्षा - रमेश यादव
क़तरे में भी छुपा है समंदर तलाश कर
'अपना तो मिले कोई' शीर्षक से प्रकाशित देवमणि पाण्डेय के ग़ज़ल संग्रह में पाठकों के आस्वाद के लिए एक सौ ग़ज़लें हैं। इसके रचनाकार देवमणि पाण्डेय हिंदी और संस्कृत विषय में प्रथम श्रेणी में स्नातकोत्तर हैं। पुस्तक का कलेवर ही ऐसा आकर्षक है कि पुस्तक उठाकर उलटने-पलटने का मन होने लगता है। बस यह उलटना-पलटना ही पर्याप्त है पुस्तक की रचनाओं के मोहजाल में उलझ जाने के लिए।

ग़ज़ल की बनावट-बुनावट, शिल्प-विधान और व्याकरण से संबंधित लम्बे- लम्बे लेख और ग्रन्थ विद्वानों ने पहले ही इतने दिये हुए हैं कि अब तो बस इनती भर अपेक्षा पर्याप्त है कि इन समस्त मानदण्डों पर खरा उतरने के साथ-साथ रचनाकार को अपने सोच और बयान को भीड़ से अलग एक महत्वपूर्ण पहचान के रूप में स्थापित कर पाने की तमीज़ हासिल रहे। देवमणि पाण्डेय की ग़ज़लों से रू--रू होते हुए यह साफ़ नज़र आता है कि इस रचनाकार ने इस विधा में अपने आप को खूब घोंट-छानकर विशुद्धता हासिल की है।

इस ग़ज़ल संग्रह की सर्वप्रथम विशेषता उसकी भाषा है जो उर्दू अथवा हिन्दी-भाषी किसी भी पाठक या श्रोता को क्लिष्टता अथवा गरिष्ठता के व्यूह में उलझाती नहीं है। रचनाओं का जहाँ तक प्रश्न है, रचनाकार ने इन्सान के रोज़मर्रा की बारीकियों तथा बारीकियों की सुरूपताओं और विद्रूपताओं को महज़ महसूस ही नहीं किया, जिया भी है। इन्हीं प्रक्रियाओं के फलस्वरूप वह यह कह सकने का हकदार हुआ है कि -

जो मिल गया है, उससे भी बेहतर तलाश कर
क़तरे में भी छुपा है समंदर तलाश कर

तू है अगर मसीहा तो यह काम कर अभी
टूटे न जिससे शीशा, वो पत्थर तलाश कर

ज़िंदगी की विविधवर्णी विधाओं, भले ही वह रूमानियत हो, इन्सानों के आपसी रिश्ते या अरिश्ते हों, आसक्ति या विरक्ति हो, संगति या विसंगति हो, प्यास या तृप्ति हो, चोट या सहलाहट हो, व्यवस्था या अव्यवस्था हो, सभी में रचनाकार अपनी विशिष्ट कहन के द्वारा पाठक को बाँधकर रखता है। ज़िदगी के इन तमाम पहलुओं पर बोलते-बतियाते अश़आर पाठक को अदृश्य पर नज़रें टिकाये रहने पर मज़बूर कर देते हैं, उदाहरणार्थ -

कुछ युँ अकेले रहने की आदत सी पड़ गई
तुमसे बिछुड़ गये तो हमें ग़म नहीं हुआ

कहाँ गई हसास की खुशबू, फ़ना हुए ज़ज़्बात कहाँ
हम भी वहीं हैं,तुम भी वही हो, लेकिन अब वो बात कहाँ

मेरे दौर में भी हैं चाहत के क़िस्से
मगर मैं पुरानी मिसालों में गुम हूँ

जब तलक रतजगा नहीं चलता
इश्क क्या है, पता नहीं चलता

आदमी पूरा हुआ तो देवता हो जायेगा
ये ज़रूरी है कि उसमें कुछ कमी बाक़ी रहे

ऐसा कब सोचा था मैंने मौसम भी छल जायेगा
सावन-भादों की बारिश में मेरा घर जल जायेगा

मुमकिन है कि पानी में तुम आग लगा दोगे
अश्कों से लिखे ख़त को मुश्किल है जला देना

ज़िंदगी के इस सफ़र में तजरुबा हमको हुआ
साथ सब हैं,पर किसी को चाहता कोई नहीं

इस प्रकार देवमणि पांडेय का ग़ज़ल-संग्रह 'अपना तो मिले कोई' कसैलेपनों में मिठासों को जगाते सोच और ख़ुशबूदार हसास की जिल्दबंदी है, जो पाठक को आत्मानन्द से तर--तर करती दिखाई देती है।

समीक्षा : रमेश यादव  : कावेरी - 64, महेन्द्रा टाउनशिप - 1, - 8 एक्सटेंशन, गुलमोहर, भोपाल - 462039
मो.- 07869171892 / 09009230565
पुस्तक : अपना तो मिले कोई , शायर :    देवमणि पाण्डेय, मूल्य : रु. 150/-
प्रकाशक : अमृत प्रकाशन : 1/ 5170, बलबीरनगर, गली नं. 8, शाहदरा, दिल्ली -- 110032 ,  मो-099680-60733