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अपना तो मिले कोई के लोकाrर्पण समारोह में (बाएं से दाएं)- शायर यूसुफ़ दीवान, शायर ज़मीर
काज़मी, शायर देवमणि पांडेय, चित्रकार जैन कमल, शायर ज़फ़र गोरखपुरी, शायर हैदर नजमी, शायर नक़्श लायलपुरी, शायर अब्दुल
अहद 'साज़', शायर राम गोविंद 'अतहर' और शायरा दीप्ति मिश्र
(मुम्बई 14.2.2012)
अपना तो मिले कोई : समीक्षा - मयंक अवस्थी
तितली के परों से
फूल की पाँखुड़ी पर शबनम की दास्तान
भगवान ने गीता में अर्जुन से अपनी
विभूतियों का वर्णन करते हुये कहा है कि महीनों में मैं मार्गशीर्ष का महीना हूँ
और वेदों में मैं सामवेद हूँ। कारण बहुत स्पष्ट है कि मनुष्य के शरीर, मन, इन्द्रियों
और बुद्धि को पुलकित करने वाले इस समशीतोष्ण मौसम वाले माह का कोई जवाब नहीं और जो
संगीत सामवेद की ऋचाओं में है उसका मुकाबला अतिशय बुद्धिलब्ध मनीषियों की ऋग्वेद
की वाणी भी नहीं कर सकती। यहाँ हमारा काम गीता की विवेचना नहीं है बल्कि एक सवाल
उठाना है कि “ क्या ऐसी भी शायरी कोई कर सकता है जिसके लिये योगेश्वर
यह कह सकें कि शायरों में मैं फलाँ हूँ। यानी सर्वस्वीकार्य और निर्विवाद शायर जो सभी
को सिर्फ पसन्द ही आये ??!! जवाब
है हाँ और एक नाम मैं आपको बता सकता, यह नाम है
- श्री देवमणि पाण्डेय।
चलिये मुद्दे की बात की जाय। यानी श्री देवमणि पाण्डेय
साहब के ख़ुशबू से सराबोर गुलदस्ते की यानी उनके ग़ज़ल संग्रह अपना तो मिले
कोई की। उन्वान से स्पष्ट है कि यहाँ आत्मीयता की तलाश है और यह हमारे समय
की सबसे बड़ी मानवीय आवश्यकता भी है। एक विशिष्ट और मौलिक लहजे में कहे गये अशआर एक
सवाल छोड़ते हैं कि - क्या कोई और ऐसे अशआर कह सकता है ?! जवाब
है कि --हाँ !! कह सकता है !! -- ऐसे
अशआर मुहतरम बशीर बद्र साहब और क़तील शिफाई से मश्वरा कर के कह सकते हैं। निष्कर्ष
यह है कि नर्म बारिश की फुहार जैसी जिस शायरी के लिये बशीर
बद्र साहब जाने जाते हैं और अपने अशआर में जिस संगीत के लिये क़तील शिफाई मशहूर
हैं - ये रंग और ख़ुशबू देवमणि जी ने अपने
अशआर में इस खूबसूरती से पिरो दिये हैं कि इतना तय है कि जिन पुस्तकों को पाठकों का
सबसे बड़ा वर्ग पसन्द करता है उनमे एक नाम और जुड़ गया है।
यह पुस्तक ग़ज़ल के व्याकरणीय अनुशासन पर पूरे तौर पर खरी है। उर्दू और
हिन्दी दोनों पाठकवर्गों में दिल से पसन्द की जाने वाली भाषा में बात करती है। यह
भाषा मीर साहब भी बोलते थे और उन्होंने गज़लों में वो वो ज्ज़्बात
पिरोये हैं जो हमारे-आपके और सबके दिलों को छू लेते हैं। बिल्कुल अपने लगते हैं।
वो अशआर जिनको सुन कर हम कहते हैं कि ठीक यही हम भी कहना चाहते थे लेकिन चूँकि हमारा
इज़हार क़ासिर था इसलिये कह नहीं सके। बहर कैफ़ देवमणि जी ने दिल की बात कह दी और
यह बिल्कुल सच है कि इन्होंने ठीक हमारे ही दिल की बात कह दी है। ये पुस्तक
हिन्दुस्तान-पाकिस्तान-अफगानिस्तान और ईरान तथा सभी जगह जहाँ खड़ी बोली
हिन्दुस्तानी की रसाई है वहाँ समझी और सराही जायेगी। भाषा की आसानी और ख़्याल की
गहराई ने कमाल किया है। दूसरा पहलू है अरूजो- फ़िक्रो-फ़न का। कुछ मिसरे मैं ज़रूर
क्वोट करना चाहूँगा-
मुमकिन है कि पानी में तुम आग लगा
दोगे
अश्कों से लिखे ख़त को मुश्किल है जला
देना
इस दुनिया की भीड़ में इक दिन चेहरे गुम
हो जाते है
रखनी है पहचान तो अपना चेहरा अपने पास
रहे
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तसव्वुफ़ इनके शेरों में दूध में मख़्खन की तरह छुपा है। कहीं कही बहुत
स्पष्ट भी है-
अभी तक यह भरम टूटा नहीं है
समन्दर साथ देगा तिश्नगी का
दिल में मेरे पल रही है यह तमन्ना आज
भी
इक समन्दर पी चुकूँ और तिश्नगी बाकी
रहे
तृष्णा रक़्तबीज होती है। मर कर और भी उद्दाम और प्रचंड संवेग से
प्रत्युपन्न हो जाने वाली। लेकिन शायर ने बेहद खूबसूरती से कबीर के लहजे में 'हँसबा
खेलबा करिबा ध्यानम' की शैली में गहरी बातें आसानी से कह दी
हैँ। पुस्तक का आकार विशिष्ट है और शब्दों में फाण्ट में नस्ता लीक और देवनागरी
दोनो की आहट मिलती है। यानी इस शायरी को
जिस गुलदस्ते में पेश किया जाना था ठीक उसी में पेश किया गया है। शायरी जिस तहज़ीब
की पैरोकार होती है उसका ख़ासा ध्यान रखा गया है। तय है कि उनकी शख़्सियत में सलीके
और तहज़ीब के वे सभी सभी ज़ाविये शुमार हैं जो कि गज़ल को मुकम्मल
और शायर को कामिल शायर बनाते हैं।
उनको सलाम!! क्योंकि इतनी आसान ज़ुबान में इतनी खूबसूरत गज़लें
उन्होंने कहीं। उनको सैकड़ों दाद !! क्योंकि
शायर बशीर बद्र के बाद मेरे देखे वो दूसरे ऐसे समकालीन शायर हैं जिनके शेर जितने
आसान हैं उतने ही गहरे भी हैं। मैं चाहता था कि ढेर सारे ख़ूबसूरत अशआर यहाँ क्वोट
करूँ लेकिन कथ्य की परिधि फिर बहुत बढेगी। एक मश्वरा यह ज़रूर देना चाहूँगा कि
डिमाई साइज़ में भी पेपरबैक में यह पुस्तक अपना तो
मिले कोई कुछ कम दामों पर भी उपलब्ध करवायें। एक बार बुक-स्टाल पर पन्ने पलटने के बाद कोई भी इस
पुस्तक के मोह से ख़ुद को दूर नहीं रख सकेगा।
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शायरी में आज बहुत उच्च स्तर की शायरी भी उपलब्ध है। लेकिन कुछ शायरों को शिल्प से इतना मोह है कि कथ्य छुप
जाता है। जैसे बहुत कढाई से कपड़ा छुप जाता है। दूसरे अतिरंजित भावनात्मक उद्द्वेग
का सहारा लेते हैं, यहाँ रंग से कपड़ा छुप जाता है । अच्छा शेर वही है जो
भावपक्ष और कला पक्ष दोनो का समुचित ध्यान रखे और दोनों का कितना प्रतिशत शेर में
होना चाहिये इसका भी ज्ञान शायर को होना चाहिए। देवमणि जी
सब कुछ जानते हैं।
अगर ग़ज़ल तितली के परों से फूल की पाँखुड़ी पर शबनम की दास्तान लिखने
का नाम है तो शत प्रतिशत देवमणि पांडेय ने मुकम्मल ग़ज़ल कह दी है। उनका व्यक्तित्व
भी तस्दीक़ करता है कि वो ऐसी ही ग़ज़लें कहते क्योंकि वो लगभग पचास बरस की उम्र
में भी नौजवान हैं, तरोताज़ा हैं। शिद्दते-अहसास और ऊर्जा से
भरपूर व्यक्तित्व के मालिक हैं। नि:सन्देह दिल की
बातें और ख़ुशबू की लकीरें के बाद अपना तो मिले
कोई के रूप में देवमणि जी ने एक यादगार पुस्तक का अदब की
दुनिया को तोहफा दिया है।
गज़ल पुस्तक : अपना तो
मिले कोई , शायर : देवमणि
पाण्डेय , क़ीमत : 150 रूपए
प्रकाशक : अमृत प्रकाशन 1/5170 , बलबीर नगर ,गली नं 8 , शाहदरा
, दिल्ली -110032
फोन : 099680-60733 /
011-2232 5468
समीक्षक: मयंक अवस्थी ,कानपुर (उ.प्र.)
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