शायर निदा फ़ाज़ली |
कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता
उर्दू की आधुनिक शायरी का एक बहुत अहम नाम हैं- निदा फ़ाज़ली। शायर निदा
फ़ाज़ली ने विभाजन की तकलीफें झेली हैं। विभाजन की आग में जलते हुए घरों
को देखा है और अपना ‘घर’ भी खोया है। आज भी खोए हुए घर की तलाश में यह
शायर अकेला भटक रहा है। यह बेमंजिल की मुसलसल तलाश उसकी मंज़िल है। हमारी सांस्कृतिक विरासत में रची बसी निदा फ़ाज़ली की रचनाओं में
सहज ही भारतीयता की शिनाख़्त की जा सकती है। अपनी रचनाओं में उन्होंने हिंदी और
उर्दू ज़बन का फ़ासला मिटा दिया है और इसीलिए काफ़ी लोग उन्हें हिंदुस्तानी ज़बान का
शायर मानते हैं । प्रस्तुत है निदा फ़ाज़ली से देवमणि पांडेय की बातचीत।
पिछले कुछ वर्षो में उर्दू में दोहे काफ़ी
लोकप्रिय हुए हैं। क्या आप मानते हैं कि यह विधा हिंदी से ली गई हैं ? उर्दू में
लिखे जाने दोहों से आप कहाँ तक संतुष्ट हैं ?
अपनी जड़ों की तलाश और उनसे
जुड़कर चलना भी एक आधुनिक रवैया हैं। धर्म और भाषा के नाम पर विभाजन होने
के बावजूद पाकिस्तान में इब्जे इंशा, नासिर शहजाद, जमीकु़द्दीन और दूसरे शायर अपने
गीतों, दोहों और कविताओं में उसी सामूहिक संस्कृति के बिखराव को समेटते नज़र आते
हैं, जो अविभाजित भारत की पहचान है। हिंदी में दोहों की एक बड़ी परंपरा है। लेकिन
उर्दू में आज से पहले दोहा लिखा ही न गया हो ऐसा भी नहीं है। खु़सरो के यहाँ दोहे
मिलते हैं । नज़ीर अकबराबादी ने दोहे लिखे हैं। उर्दू में दोहे कम ही लिखे गए हैं।
हर विधा को सशक्त क़लम की ज़रूरत होती है । अभी इसे ग़ज़ल की तरह अच्छे शायर नसीब
नहीं हुए हैं।
शायर देवमणि पाण्डेय,समाजसेवी रामनारायण सराफ, शायर निदा फ़ाज़ली और शायर नक़्श लायलपुरी (मुम्बई 2005) |
आपके दोहे बहुत सराहे गए हैं।
फिर भी आपने सीमित मात्रा में ही दोहे क्यों लिखें ?
मेरी परंपरा में हिंदी और उर्दू दोनों शामिल हैं। मुझे इस फार्म
में लिखने की प्रेरणा रहीम और बिहारी से मिली है। लेकिन किसी पुरानी विधा को ज्यों
का त्यों उठाने से बात नहीं बनती। इसमें कुछ अपना भी जोड़ना पड़ता है। इसे अपने
युगबोध में ढालना पड़ता है। मैनें दोहे लिखना बंद नहीं किया है। अब भी लिखता हूँ।
लेकिन मैं गिनती बढ़ाने के लिए नहीं अपने आपको अपनी तरह से अभिव्यक्त करने के लिए
ही लिखता हूँ। शायद इसलिए इनकी गिनती कम है ।
पाकिस्तान में महिला अदीबों की क्या स्थिति है
? जिन कारणों से फ़हमीदा रियाज़,किश्वर नाहीद आदि चर्चित हुई हैं क्या वैसी संभावना
हिंदुस्तान में भी आपको किसी शायरा में नज़र आती है ?
पकिस्तान में फ़हमीदा रियाज़ और किश्वर नाहिद के आलावा और भी कई
अच्छी शायराएं हैं । उनमें परवीन शाकिर, शाहिदा हसन, सारा शगुफ़्ता, अदा बदायूंनी,
ज़ोहरा निगाह काफ़ी
मशहूर हैं। हमारे यहाँ अज़ीज़ बानो वफ़ा, साजिदा जैदी, राना हैदरी आदि अच्छी लिखने
वालों में हैं।
मैनें सुना है कि ‘घर से मजिस्द है बहुत दूर’ वाले आपके शेर पर पाकिस्तान में एतराज़ हुआ था। क्या आप खुलासा करना
पसंद करेंगे कि वे एतराज़ क्या थे और आपने उनका क्या जवाब दिया?
मैं पाकिस्तान मुशायरे में गया था। वहाँ राइटर्स गिल्ड ने भी शेर
पढ़ने के लिए आमंत्रित कर लिया। मैंने वहाँ यह शेर भी पढ़ा था -
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए
वह डिक्टेटरशिप का ज़माना था। धर्म के नाम पर जनता के भोलेपन का
शोषण किया जा रहा था। मुझ पर यह एतराज़् हुआ कि मैंने मस्जिद और बच्चे की हँसी की
तुलना करने का अधर्म किया है। मेरा जवाब था, बच्चे को ख़ुदा बनाता है और मस्जिद को
इंसान। मैंने ख़ुदा की बनाई चीज़ को महत्व देकर कोई अधर्म नहीं किया है।
आपकी कुछ गजलों में ‘घर’ शब्द पर काफ़ी ज़ोर दिया गया है । क्या घर के साथ आपकी कोई ऐसी याद
जुड़ी है जिसे आप भुला नहीं पाते ?
मैंने सन् 1965 में ग्वालियर में अपना घर खोया है। खोया हुआ घर ज़मीन
से ग़ायब होकर कल्पना में छुप जाता है। मेरी बेघरी मुझ पर राजनीति का श्राप था। इस
खोए हुए घर की खोज मेरा कवि धर्म है। इसकी तलाश अब सिर्फ़ मेरे घर की तलाश नहीं है।
यह तलाश उस विद्रोह का प्रतीक भी है जो ज़िंदा रहने की शर्त है-
दुनिया न जीत पाओ तो हारो न आपको
थोड़ी-बहुत तो ज़हन में नाराजगी रहे
आपने अपनी रचनाओं में कई जगह पुराने आदर्शो की
धज्जियां उड़ाई हैं लेकिन नए आदर्शो के निर्माण का कोई आधार नहीं प्रस्तुत
किया,ऐसा क्यों ?
आदर्शों के निर्माण की मज़दूरी मेरे लिए ज़रूरी नहीं। संसार में
आदिकाल से अब तक सैकड़ों आदर्श हमें विरासत में मिले हैं। इनका विश्लेषण करने से
जब जीवन को फु़र्सत मिलेगी तब निर्माण का भ्रम भी पाल लूँगा ।
फ़िल्मों में गीत लिखने की शुरूआत आपने कब और
किन परिस्थितियों में की ?
मैं 1965 में मुंबई आया। यहाँ आकर हिंदी-उर्दू पत्रकारिता से जुड़
गया। फ़िल्म लेखन में मेरी रुचि नहीं थी। एक दिन विट्ठल भाई पटेल के यहाँ एक गोष्ठी
में मैंने शेर सुनाए। श्रोताओं में एक अजनबी प्रभावित हो गए। उनका नाम था सुगनू
जेठवानी। उन्होंने चार फ़िल्मों की घोषणा एक साथ की। उन सबमें मेरा नाम गीतकार के रूप
में था। उनमें तीन फिल्में बनीं- ‘शायद’, ‘कन्हैया’ और ‘हरजाई’।
क्या कारण है कि आम जनता में जितना आपकी गै़र फ़िल्मी
रचनाएं लोकप्रिय हुईं, उतने लोकप्रिय आपके फ़िल्मी गीत नहीं हुए ?
ऐसा नहीं है, फिल्मों में भी कई गाने लोकप्रिय हुए। ये गीत आम
कमर्शियल स्टाइल के न होते हुए भी सुनने वालों को पसंद आए। उनमें से कुछ ये हैं-
1.तू इस तरह से मेरी जिंदगी में शामिल है।
2.कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता।
3.तुम्हारी पलकों की चिलमनों में ये क्या छुपा है सितारे जैसा।
4.तेरे लिए पलकों की झालर बुनूँ।
5.होश वालों को ख़बर क्या बेख़ुदी क्या चीज़ है।
फ़िल्मी गीत लिखने के लिए निश्चित ही आपको अपने
साहित्यिक स्तर से नीचे उतरना पड़ता होगा। क्या आपको इस तरह के समझौते से असुविधा
नहीं होती ?
समझौता तो जीवन में हर जगह करना पड़ता है। किेतनी चीज़ें हैं जो
हमें संसार में अच्छी नहीं लगतीं। गर्मी में गर्मी अच्छी नहीं लगती। सर्दीं में
सर्दीं परेशान करती है। जहाँ मैं रहता हूँ वहाँ के सामने के घर हवा को रोकते हैं।
मेरी मर्ज़ी के बिना सद्दाम हुसैन ने कुवैत पर हमला बोल दिया था। देश के विभाजन के
बारे में कब मुझसे सलाह ली गई थी। लेकिन इन सबकी प्रतिक्रियाओं का असर मुझ पर
पड़ता है। इनके साथ जीना पड़ता है-
सफर में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो।
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो।
क्या आपको लगता है कि सुरीले गीतों का ज़माना
वापस आएगा ?
फिल्मों में गीतों का संबंध कहानी से होता है। फिल्म में कहानी ढंग
की होती है तो गीत भी ढंग के होते हैं। व्यवसाय के नाम पर जिस क़िस्म की मसाला फिल्में
बनती हैं, उनमें गीत भी मसालों में पिस जाते हैं। गीत के साथ संगीत भी चोला बदलने
को विवश है। ख़य्याम, नौशाद, आरडी बर्मन, जयदेव, रोशन संगीत की गीत की भाषा से भी
परीचित थे। इसके सुर शब्दों का आदार करते थे। जहाँ यह ज्ञान नहीं होगा, वहाँ
शब्दों का आनादर ही होगा। केवल मेलोडी से बात नहीं बनती। फिल्म में कहानी, संवाद,
निर्देशन, संगीत और गीत का कलात्मक संतुलन आवश्यक है।
देवमणि पांडेय : 98210-82126
Nida Fazli ji kee shaayree kaa main mureed hun .Saaf - suthree bhasha mein sher
ReplyDeleteaadi kahna unkee shaayree ki viveshta hai . Kaee saal pahle main unkaa ye filmi
geet sun kar abhibhoot ho gyaa tha -
Tere liye palkon ki jhaalar bunoon