Thursday, July 19, 2012

अपना तो मिले कोई : समीक्षा - अनिरूद्ध सिन्हा

शायर ज़फ़र गोरखपुरी की किताब 'मिट्टी को हँसाना है' का लोकार्पण। चित्र में डॉ.कलीम ज़िया, शायर अब्दुल अहद साज़,शायर देवमणि पाण्डेय, मरहूम कथाकार कृश्न चंदर की शरीके-हयात मोहतरमा सलमा सिद्दीक़ी, जाने-माने रंगकर्मी एवं फ़िल्म लेखक जावेद सिद्दीक़ी,शायर ज़फ़र गोरखपुरी,शायर ज़मीर काज़मी, वरिष्ठ पत्रकार लाजपत राय और बेबी फ़िज़ा (mumbai 26.05.2012)

अपना तो मिले कोई : समीक्षा - अनिरूद्ध सिन्हा
जीने का मज़ा आया टकराके ज़माने से

ग़ज़ल हिंन्दी काव्य-विधा की एक नई शाखा के रूप में विकसित हो चुकी है। कथ्य और शालीनता समान रूप से दिखाई पड़ती है। शालीनता का अभिप्राय है कहन की विनम्रता जो अभिव्यक्तियों के माध्यम से व्यक्त होती है और कहन के सहज प्रवाह को गतिशील रखती है। विनम्रता छंद और लय का पर्याय है। कविता विनम्रता या शालीनता के अभाव में खुरदुरी हो जाती है जिसे आम पाठक स्वीकार नहीं करता। लयविहीन कविता एक सुविधा है। सुविधा और कविता में कोई सामंजस्य नहीं है। ग़ज़ल में सुविधा की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

प्रगतिवाद और जनवाद के नाम पर कुछ तथाकथित कवियों ने हिन्दी कविता को सुविधाभोगी बना दिया जिसका दुखद अध्याय पठनीयता के संकट के नाम पर जुड़ने लगा और शोर भी वही लोग मचाने लगे जो कविता में सुविधा के पक्षघर थे।

हमारा पद्य साहित्य काफी प्राचीन है जो कथाओं और संवादों से आरंभ होता है। प्राचीन कथाओं और संवादों में आनंद है, रस है और सौंदर्य है। ग़ज़ल का इतिहास भी इससे अछूता नहीं है। लेकिन धीरे-धीरे इसके प्रगतिशील कहन की सोच भी अंगड़ाईयाँ लेती रही और सत्तर के दशक तक आते-आते यह खुलकर सामने आ गयी बिना कोई लेखकीय सुविधा प्राप्त किए। हिन्दी ग़ज़ल की यह यात्रा निरंतर जारी है। इस यात्रा को सफल और गतिशील बनाने में कई ग़ज़लकारों की महत्वपूर्ण भूमिका को इंकार नहीं किया जा सकता जिनमें से एक नाम देवमणि पांडेय का भी है।

देवमणि पांडेय की ग़ज़लें जीवन का पर्यवेक्षण कर हृदय की गहरी सामाजिक तहों से उत्पन्न होती हैं। उनकी ग़ज़लों में अनुभुति संकलित होती है जिससे पाठक गहरे सामाजिक कलात्मक उद्वेग का अनुभव करता है। यह कहन की सफलता है। वे समय की विद्रूपता के विरूद्ध खड़े होकर संवाद और प्रतिसंवाद करने से परहेज नहीं करते --
कुछ ऐसे बदनसीब भी हैं इस जहान में
मरने पे जिनके कोई भी मातम नहीं हुआ
रस्मों के बदलने की ज़िद मँहगी पड़ी फिर भी
जीने का मजा आया टकराके ज़माने से

साहित्य युग की वृत्ति है। एक बड़ा और पठनीय साहित्य युग की घटनाओं को दिशा प्रदान करने लगता है। बावजूद इसके इसकी अपनी सीमाएँ हैं। इसकी व्याख्या चेतना के तथ्यों, शुद्ध बुद्धि के विचारों के रूप में की जानी चाहिए।

देवमणि पांडेय अपनी ग़ज़लों के साथ न्याय करते हैं। आदर्शोन्मुख यथार्थ को बड़ी सूक्ष्मता के साथ पकड़ते हैं जिससे यथार्थ का खुरदुरापन प्रकट नहीं होता। आदर्श के सहारे यथार्थ को पूर्णता तक ले जाते हैं। ऊपर वर्णित शेर की सूक्ष्मता को देखें। किसी ऐसे आदमी की कल्पना करना कठिन होगा जिसकी मृत्यु पर मातम नहीं मनाया जाता। यह एक अस्पष्ट विश्वास है। जो  काफ़ी परेशान करता है। हम इसे सामाजिकता का प्रथम लक्ष्य भी मान सकते हैं। यह सामाजिकता का प्रथम लक्ष्य लेखन का मौलिक भाग है जिसके बिना लिखना कोरे यथार्थ का शोकगीत माना जाएगा।

'अपना तो मिले कोई' में संग्रहीत पूरी ग़ज़लों का स्केच तैयार किया जाए तो यह स्पष्ट हो  जाएगा कि समकालीन यथार्थ पर ग़ज़लकार की दृष्टि तो है ही लेकिन आस-पास के धुंधलके पर ज्य़ादा तीक्ष्ण है। यह समाज का पेचीदा चित्र है... किसी की मौत पर मातम का अकाल। इस  संकेत की व्याख्या हमें बौद्धिक गतिविधियों के परिणाम के रूप में नहीं करनी होगी। धुंधलके में छुपे उस व्यक्ति को बाहर लाना होगा जो मौत की दहलीज़ पर खड़े होकर मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है। देवमणि पांडेय का यह शेर कोरे यथार्थ-आदर्श की बैसाखी पर टंगा हुआ शव है जिसे पाठक देख भी सकता है और समझ भी सकता है। देवमणि पांडेय की ग़ज़लों की यात्रा यहीं पर आकर समाप्त नहीं होती  है जीवन और समाज के अन्य महत्वपूर्ण रहस्यों को भी  पकड़ती है और कहीं -कहीं विद्रोह भी करती है-

ऐसा नहीं कि रेत में होता नहीं है जल
मुट्ठी में लेके ज़ोर से उसको निचोड़िए

करें कोशिश अगर मिलकर तो नामुमकिन नहीं कुछ भी
पलट जाता है तख्ता ज़ुल्म का अकसर बगावत से

विद्रोह का पलायन हमें स्वयं से वंचित करता है। हमारा दायित्व है अपने संशिलिष्ट विवेक को व्यक्त करना। विद्रोह मनुष्य के लिए आवश्यक चीजों का निर्माण ही नहीं करता बल्कि एक सक्रिय सत्ता सामाजिक उत्कर्ष के रूप में मनुष्य का भी निर्माण करता है। साहित्य का असल उदेश्य ऊँची क़िस्म के लोगों को तैयार करना है जिसके साथ सामाजिक समरूपता भी आवश्यक रूप से जुड़ी हुई है। देवमणि पांडेय अपनी विचार-सत्ता को संवेदना के सहारे आगे लेकर चलते हैं जो उनकी ग़ज़लों को ताक़त देती है। ये ग़ज़लें यथार्थ के परिवेश में घुसकर उसकी कमियों पर प्रहार करती है और सामाजिक अनुभवों को विस्तारित करती हैं। इस दृष्टि सें 'अपना तो मिले कोई' की ग़ज़लों समाज के प्रति अपनी मुग्धता को व्यक्त करती हैं।

समीक्षा : अनिरूद्ध सिन्हा : गुलज़ार पोखर, मुंगेर, (बिहार) 811201, M : 094304-50098
ग़ज़ल संग्रह : अपना तो मिले कोई , शायर : देवमणि पाण्डेय, क़ीमत : 150 रूपए
प्रकाशक : अमृत प्रकाशन, 1/5170, बलबीर, गली नं.8, शाहदरा, दिल्ली-110032, फोन : 099680-60733

अपना तो मिले कोई : समीक्षा - शतानंद श्रोत्रिय



                   
अपना तो मिले कोई : समीक्षा - शतानंद श्रोत्रिय
    रिश्ता तो मुहब्बत का निभता है निभाने से

'अपना तो मिले कोई' ग़ज़लकार देवमणि पांडेय का सद्य: प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह है। यह संग्रह समकालीन हिन्दी कविता, गीत, उर्दू ग़ज़ल और हिन्दी ग़ज़ल की चतुष्पदी है। इसमें समकालीन हिन्दी कविता-सा यथार्थ, गीत की गेयता, उर्दू ग़ज़ल की रवानी और हिन्दी ग़ज़ल की चिरनूतनता है। यह चतुष्पदी भारतीय वांगमय के ग्रंथ-सा आकार लिए है जिसकी साज-सज्जा तथा श्रृंगार आधुनिक परिवेश के अनुकूल भव्य एवं नव्य है। यह भव्यता एवं नव्यता स्वाभाविक तथा प्राकृतिक है जो संग्रह की ग़ज़लों से रू--रू होने के बाद उनके अक़्स से नूरानी उठी है।

देवमणि पांडेय संस्कारवादी शायर हैं। जिस पर उन्होंने जितना जीवन जिया है, जो कुछ अपने आस-पास घटित होते देखा तथा जो अनुभव हुए हैं उनके आधार पर तय किये गये (बनाये हुए) उसूलों के आधार पर अपने स्वभाव और प्रकृति के अनुरूप अपनी अनुभूतियों को शायरी में ढाला है। अपने अनुभवों से शायरी के माध्यम से हमें नवाज़ा है।

शायर देवमणि पांडेय को देना ही देना आता है। वह हमेशा समष्टिगत हित की कामना करता है। सबके लिए उसके पास फ़क़ीराना दुआ है। सबके लिए दुआ ही दुआ । फिर जो सबके लिए दुआ करता हो, दुआ करने का हक़दार हो, उसे अपने लिए कुछ चाहने की ज़रूरत भी कहाँ रह जाती है? शायद इसी लिए जो कुछ कमियाँ हैं वह अपने में ही देखता है और स्वीकार करता है। अपनी कमियों का दोष दूसरों को नहीं देता । दोष मानता भी है तो परिस्थितियों का। अपने मुक़द्दर को भी दोष नहीं देता। उसे किसी से शिकायत नहीं। न दोस्त से न दुश्मन से। वह तो सभी के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता है --

किस-किस ने मुझे जख़्म दिये किसने दवा दी
अब सबके लिए लब पे मेरे सिर्फ़ दुआ है

नकारात्मकता में भी सकारात्मकता देखना उसका स्वभाव है --

तुम्हारी याद ने यूँ दिल पे दस्तकें दी हैं
कि जैसे दश्त को आबाद कर गया कोई

करे लाख तेरी बुराई कोई
मगर तू किसी का बुरा न करे

दोस्तों से दिल का रिश्ता क़ाश हो कुछ इस तरह
दुश्मनी के साये में भी दोस्ती बाक़ी रहे

शायर अपने 'मैं' की सार्थकता इसी में मानता है कि वह 'अन्य' का हो जाये। जो भी संपर्क में आये उसका हो  जाये। सर्व ' का हो जाये। 'परात्पर' का हो जाये। वह अपने मैं को अपनी इस कसौटी पर परखता है तो उसे अभी भी अपने 'मैं' को तराशने की ज़रूरत महसूस होती है --

ये आरज़ू थी तेरी निगाहों में मैं रहूँ
लेकिन मैं तेरी आँख का काजल नहीं हुआ

ख़ुशबू मेरी निगाह की तुझसे लिपट गई
क्या बात है कि दिल तेरा संदल नहीं हुआ

शायर को लगता है कि उसका 'मैं' अभी इतना प्रभावकारी नहीं बन सका है कि वह 'अद्वैत' हो जाय। चूँकि अभी उसके 'मैं' में द्वैत है, वह असुविधा महसूस कर रहा है। भिन्नता महसूस कर रहा है। उसे  लग रहा है कि मेरा 'मैं' अद्वैत क्यों नहीं बन पाया? अत: उसकी कोशिश है कि उसका 'मैं' अद्वैत बन जाय ताकि दो के बने रहने पर भी अभिन्नता दिखे, एक ही दिखे।

शायर का 'मैं' बड़ा स्वाभिमानी है। वह किसी अन्य से उम्मीद की बजाय ख़ुद से ही उम्मीद रखता है। उसका यह उसूल भारतीय वांगमय के अनुरूप है। हमारा वांगमय कहता है कि कभी भी किसी से कुछ मत माँगो। ईश्वर से भी नहीं। हाँ, माँगना ही पड़े तो अपने सदगुरु से माँगो। लेकिन सदगुरु भी तो प्राप्ति के उपाय ही बतायेगा जो अन्ततोगत्वा हमें ही करने होंगे। अत: शायर ख़ुद अपने ही से उम्मीद रखता है। इसीलिए तो उसका --

जारी है दुख की रात में भी ज़ीस्त का सफ़र
उम्मीद का दिया कभी मद्धम नहीं हुआ

फिर वह आश्वस्त क्यों न रहे। फ़िक्रमंदी क्यों करे? उसके साथ उसका ख़ुदा जो है। ख़ुदा की इस नेमत के बल पर ही असंभव को संभव बनाने की नायाब कोशिश जारी है --

तू है अगर मसीहा तो यह काम कर अभी
टूटे न जिससे शीशा वो पत्थर तलाश कर

ज़ाहिर है कि शायर की यह कोशिश बेहतर से बेहतर तलाशने और तदनुरूप क्रियान्वयन की कोशिश है। उसके यहाँ - क़तरे में छिपे समंदर की, आँखो को सुकून दे ऐसे मंज़र की, खोये हुए घर को पाने की और अपने मुक़द्दर को तराशने की कोशिश जारी है। इस कोशिश के चलते ही वह हमें अपनी सलाहियत से नवाज़ता है --

मायूसी की हद से बाहर निकल सको तो बेहतर है
ठोकर खाने से पहले ही संभल सको तो बेहतर है

मानना ही होगा कि देवमणि पांडेय की जिजीविषा अप्रतिम है। उन्होंने बहुत धूप झेली है। अपने को बहुत तपाया है। तभी भाग्य की अपेक्षा कर्तव्य कर्म करते रहने में अधिक विश्वास रखते हैं। उनके शायर ने उनसे कहा भी है -'कोशिश से अपनी अपना मुक़द्दर तलाश कर'। उनमें ज़िंदगी के जटिल प्रश्नों का हल ढूँढने का का माद्दा है। विपरीत परिस्थितियों को अपने साहस, सम्बल और सूझबूझ से अनुकूल बनाने का कौशल है। सबसे बढ़कर, उनकी जीने की ख़्वाहिश जारी है। फिर भले ही यह ग़म का इनआम ही क्यों न हो? चूँकि वे जिजीविषा से भरपूर हैं हमें भी उत्साहित करते हैं - 'उस तरफ़ चलके तुम कभी देखो / जिस तरफ़ रास्ता नहीं चलता' यहाँ उल्लेखनीय यह कि- शायर हमें ऐसे रास्ते पर ढकेलकर अपना दामन नहीं झटक लेता है। वह रास्ते में आने वाली कठिनाइयाँ, हमारी थकान सभी कुछ जानता है, अत: दुआ करता रहता है -

बढ़ी जो धूप सफ़र में तो ये दुआ मांगी
कहीं तो छांव दरख़्तों की कुछ घनी मिलती

शायर को इसी  जिजीविषा के बल पर मंज़िल पर पहुँचने का भरोसा है। यह जिजीविषा उसकी बंदगी है। इसी बंदगी के भरोसे उसे कोई भी मंज़िल कभी दूर न लगी। स्वयं के इस दृढ़ विश्वास के बलपर हमें विश्वास दिला सका है, हमारे हौसला अफ़ज़ाईकर सका है -

मुश्किलों के दरमियां बढ़ते रहे जिसके क़दम
वो ज़माने की निगाहों में सिकंदर हो गया

हिम्मत की पतवार थाम के करो सवारी लहरों पर
तूफ़ानों से जो लड़ते हैं बस वो पार उतरते हैं

कितने ग़मों के साथ अकेली है ज़िंदगी
हिम्मत अगर है ग़म की कलाई मरोड़ दे

ग़ौरतलब है कि शायर को अपनी लघुता और सीमाओं का भान है। वह अपने को एक छोटा-सा क़तरा मानता है। इसीलिए दो-चार दिन की एक छोटी-सी ज़िंदगी में जो कुछ भी उपलब्धियाँ हासिल हुईं उनके प्रति विनीत भाव से वह परमपिता और उसकी सृष्टि का शुक्रियाना करता है। उसे अपनी उपलब्धियों एवं शोहरत का गुमान तो दूर की बात रही,  शोहरत उसे काँटो की तरह चुभती है। इसलिए की शोहरत की बुलंदियों में उड़ान भरने के ख़तरों से वह वाक़िफ़ है -'शोहरत देकर इस दुनिया ने / कितनों को मग़रूर किया है'
                 
शायर ज़फ़र गोरखपुरी की किताब 'मिट्टी को हँसाना है' का लोकार्पण। चित्र में डॉ.कलीम ज़िया, शायर अब्दुल अहद साज़,शायर देवमणि पाण्डेय, विधायक नवाब मलिक, मरहूम कथाकार कृश्न चंदर की शरीके-हयात मोहतरमा सलमा सिद्दीक़ी, जाने-माने रंगकर्मी एवं फ़िल्म लेखक जावेद सिद्दीक़ी,शायर ज़फ़र गोरखपुरी,शायर ज़मीर काज़मी, वरिष्ठ पत्रकार लाजपत राय और बेबी फ़िज़ा (mumbai 26.05.2012)
 

चाहे बात देवमणि पांडेय के नाम से अथवा 'शायर' के हवाले से की जा रही हो, वे सभी बातें 'अपना तो मिले कोई' की ग़ज़लों की मार्फ़त ही की जा रही हैं। अगली बात यह कि- शायर की संवेदनशीलता परिंदो, बच्चों किसानों, ज़िदगी से मरहूम, फुटपाथपर सोने वाले लोगों एवं उन बदनसीबों के प्रति है जिनके मरने पे कोई भी मातम नहीं होता। प्रमाण में संग्रह की ग़ज़लों के शेर द्रष्टव्य हैं -

परिंदे --- जवाँ है ख़्वाब क़फ़स में भी जिन परिन्दों के
मेरी दुआ है उन्हें फिर से आसमान मिले

(मेरा मक़सद तुलना करना नहीं हैं फिर भी ऐसे ही अंदाज़ के फ़ैज साहब के एक शेर का उल्लेख करना चाहूँगा-
क़फ़स उदास है यारो सबा से कुछ तो कहो / कहीं तो बहरे-ख़ुदा आज ज़िक्रे-यार चले)

बच्चे---ये क्या हुआ लबों की मुस्कान क्यों है जख़्मी
बच्चों को आप डाटें ऐसे मगर न डाटें

किसान ---दरक गया मिट्टी का सीना सारी फ़सलें खाक़ हुईं
अब तो सावन के बादल भी जमकर कहाँ बरसते हैं

मरहूम ---आज तक ज़िंदगी से जो मरहूम हैं
क़ाश ! उनको मिले एक पल ज़िंदगी में

फुटपाथ--ख्वाब हैं उनकी आँखों में भी
फुटपाथों पर जो सोते हैं

बदनसीब ---कुछ ऐसे बदनसीब भी हैं इस जहान में
मरने पे जिनके कोई भी मातम नहीं हुआ

इस संग्रह की ग़ज़लों में आये फ़लसफ़ों की बात करें तो ये फ़लसफ़े ऐसे शायर के हैं जिसकी अब तक की उम्र ज़िंदगी के सवालों के हल खोजने में ही बीती है। ये फ़लसफ़े क़िताबी नहीं ख़िताबी हैं। एक तपे तपाये शायर के निजी-अनुभवों और निष्कर्षों पर आधारित हैं। ये 'देवमणि दर्शन' के फ़लसफ़े हैं जो विश्व के प्रत्येक दर्शन के क़रीब के फ़लसफ़े हैं। ज़ाहिर है कि ये सर्वमान्य रहेंगे। इस दर्शन में अस्तित्व, दुनिया, रिश्ते, दीन-धर्म,सुख-दुख, मुहब्बत, दिल, सत्य, तृप्ति-अतृप्ति के फ़लसफ़े हैं । केवल इतना उल्लेख भर कर देने से बात पुख़्ता नहीं कही जा सकती। एक -एक उद्धरण / प्रमाण देना आवश्यक होगा --

अस्तित्व--जिस्म पर लिबास है क़ाग़ज का
   हाथ में क दियासलाई है

दुनिया---फ़क़ीरी है, अमीरी है, मुहब्बत है, इबादत है
नज़र आई है इक दुनिया, मुझे जोगन की आँखों में

ज़िंदगी---ज़िदगी में हर क़दम हैं मुश्किलें ही मुश्किलें
जिस तरफ़ दिल ले चलेगा रास्ता हो जाएगा

रिश्ते---ज़रा-सी चूक से रिश्तों के धागे टूट जाते हैं
ज़रूरी है बचा लें ख़ुद को रिश्तों की तिज़ारत से

धर्म---दीन-धर्म की हम क्या जानें हम तो जानें दिल की बात
प्यार छुपा है जहाँ वहीं पर काशी और मदीना  है

दुख---जब तलक दुख मेरा दुख था एक क़तरा ही रहा
मिल गया दुनिया के ग़म से तो समंदर हो गया

मुहब्बत---कुछ ख़्वाब सजाने से, कुछ ज़ख़्म छिपाने से
रिश्ता तो मुहब्बत का निभता है निभाने से

दिल---दिल अदालत है इस अदालत में
वक़्त का फ़ैसला नहीं चलता

सत्य---ज़िंदा रहना है तो फिर सामना सच का भी करें
झूठ के साथ यहाँ किसका गुज़होता है

तृप्ति-अतृप्ति---दिल में मेरे पल रही है यह तमन्ना आज भी
इक समंदर पी चुकुँ और तिश्नगी बाक़ी रहे

तमन्ना---आदमी पूरा हुआ तो देवता हो जायेगा
ये ज़रूरी है कि उसमें कुछ कमी बाक़ी रहे

ज़ाहिर है कि आज की उपभोक्तावादी, बाजारवादी, यांत्रिक दुनिया में जहाँ संवेदनहीनता पसरी हो, मूल्य (जीवनमूल्य) खोते जा रहे हों, सभी स्वार्थपरक जिंदगी जी रहे हों, प्रतिद्वंद्विता, झूठे प्रदर्शन, अनैतिकता, आतंकी, क्रूर, निर्मम, दम्भी और पाखंडी माहौल हो, ऐसे परिदृश्य के बीच मूल्यों की, संस्कारों की, नैतिकता की, संवेदनशीलता की, कर्तव्यकर्म करने की, नीति-निष्ठा की, अस्तित्व और ज़मीर को सुरक्षित बचाये रखने की बात कोई देवमणि पांडेय जैसा 'पागल' शायर ही कर सकता है। ऐसा नहीं कि इस बात से, अथवा इस उपाधि से नवाज़े जाने से वह वाक़िफ़ नहीं है। वह वाक़िफ़ है। उसने बिना शर्त ही अपने आपको 'पागल' की उपाधि से नवाज़ रखा है। उसने अपना पागलपन समझ रखा है।

हममें ज़रा सा भी विवेक हो तो उस पागल की सलाहितों पर अमल करें। उसकी बात पर गौर करें और कोशिश करें-  ठोकर खाने से पहले ही संभलने की, ख़्वाबों और ख़यालों से अपने को बहलाने की, अपना हक़ प्राप्त करने के लिए सावधान और प्रयत्नशील रहने की, अपने रमानों को छुपाने की बजाय दरिया की मौज़ों की तरह उथल-पुथल करने की, अपनी फटी-पुरानी चादर को ओढ़ कर बैठे रहने की बजाए अपना कर्तव्य-कर्म करने की, कर्मशील पुरुषों के प्रयासों का अनुगमन करने की। इस कोशिश में हम मन का कहा तो मानें ही, दिल की भी सुनें। एकांत में बैठकर चिंतन, मनन करें, अन्त:करण की आवाज़ सुनें, इधर-उधर व्यर्थ भटकने की बजाय निश्चित उद्देश्य के लिए दृढ़-संकल्पित हो यात्रा में बने रहने का उपक्रम करें, एक-दूसरे का हाथ थामकर इस यात्रा को आगे बढ़ायें। इस यात्रा के अनुक्रम में नफ़रत और वैमनस्य के विष को अपने प्यार रूपी अमृत से सींचकर प्रेम और भाईचारे का अमृतमय संस्कार संवाहित करें। तभी शायर की 'अपना तो मिले कोई' की तलाश पूरी हो सकेगी। और यह हसरत भी पूरी हो सकेगी-

उगाते हम भी शज़र एक दिन मुहब्बत का
तुम्हारे दिल की ज़मीं में अगर नमी मिलती

समीक्षा : शतानंद श्रोत्रिय : जी-1 विक्रय कर कालोनी, ण्डवा (म.प्र.)-450001, 098932-26990
ग़ज़ल संग्रह : अपना तो मिले कोई , शायर : देवमणि पाण्डेय, क़ीमत : 150 रूपए
प्रकाशक : अमृत प्रकाशन, 1/5170, बलबीर, गली नं.8, शाहदरा, दिल्ली-110032, फोन : 099680-60733