तालियों ने कविता को नष्ट कर दिया : गीतकार नीरज
गीतकार नीरज को रचनात्मक उपलब्धियों के लिए में भारत सरकार ने दो-दो बार सम्मानित किया। पहले पद्म श्री से, उसके बाद पद्म भूषण से। यही नहीं, फ़िल्मों में सर्वश्रेष्ठ
गीत लेखन के लिये उन्हें लगातार तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार भी मिला। प्रस्तुत है गीतकार नीरज से देवमणि पांडेय की बातचीत।
आपका फिल्मों में लिखा हुआ हर गीत लोकप्रिय हुआ। फिर भी आप फिल्म जगत
छोड़कर क्यों चले गए ?
मुम्बई की ज़िंदगी में जो भागदौड़ है वह मुझे पसंद नहीं आई। मुझे
अधिक पैसा कमाने की भी चाह नहीं है। मेरा मन यायावर प्रवृत्ति का है। मैं किसी एक
जगह पर अधिक दिन तक नहीं टिक सकता। वैसे मुझे चाहनेवाले अभी भी मुझे बुला लेते
हैं। महेश भट्ट की फिल्म ‘फरेब’ में दो गीत हैं- ‘आंखों
से दिल में उतरके’ और ‘मेरे प्यार का पहला
सावन तेरे नाम तेरे नाम’।
आपकी
अधिकतर रचनाओं में दार्शनिकता का असर क्यों दिखाई पड़ता है ?
मैंने शरीर-मन और आत्मा यानी अकेलेपन की
पीड़ा भोगी है। मेरी रचनाओं में तीनों पीड़ाओं का संगम है ‘तन रोगी मन भोगी आत्मा योगी रे’। मैं बुद्ध की करुणा से प्रभावित हूँ। मैं
मानता हूँ कि जीवन का मूलतत्व करुणा है। मेरे स्वर में भी करुणा है- कोई नहीं पराया मेरा घर सारा संसार है। जीवन विरोधभासों पर चलता है। इसीलिए मेरी
कविता में द्वंद्वात्मकता भी दिखाई पड़ती है।
अगर आपकी अभिव्याक्ति के लिए गीतविधा पर्याप्त थी तो आपका रुझान ग़ज़लों
की ओर क्यों हुआ?
मैंने जीवन की सभी स्थितियों और देश-विदेश
की कई प्रमुख घटनाओं को गीत में अभिव्यक्त किया। मगर मुझे काव्य की सारी विधाएं प्रिय
हैं। इसीलिए मैंने सरी विधाओं में प्रयोग किए। ग़ज़ल के अलावा मैंने मुक्तक,रुबाई,गीतिका
आदि चीज़ें भी लिखीं और सभी पसंद की गई। मैंने अभिव्याक्ति में सहजता और सरलता का ध्यान
रखा ताकि कविता आम लोगों तक पहुंच सके।
क्या कविता के लिए सरल भाषा ज़रुरी है?
जी हाँ, भाषा के तीन स्वरूप होते हैं- किताबी,
ड्राइंगरूम और जनता की भाषा।जब आम आदमी की भाषा में कविता लिखी जाए और वह कविता भी बनी रहे तभी वह सबके पास पहुँचेगी। तुलसी
की यह चौपाई कविता को बहुत अच्छी तरह परिभाषित करती है-
सुगम अगम मृदु मंजु कठोरा। अरथ अमित आखर अति थोरा।।
मैंने भाषा तो सरल ली मगर कविता को सस्ता
नहीं होने दिया। बच्चन की तरह मैंने भी कविता को आम आदमी तक पहुँचाया। उसे शायरी के
मुका़बले खड़ा किया।
आपकी राय में उर्दू शायरी की लोकप्रियता के क्या कारण हैं?.........
उर्दू शायरी की लोकप्रियता का सबसे बड़ा
कारण है भाषा का सही प्रयोग। हमने रस, अलंकार और रीति पर बहुत बातें की मगर भाषा पर
बातें नहीं कीं। हिंदी में बड़े-बड़े कवियों तक को भाषा की तमीज़ नहीं है। उर्दू में
वाक्यों को तोड़ने-मरोड़ने की बजाय भाषा को उसके गद्यात्मक अनुशासन के साथ पेश किया
गया। हिंदीवालों को भाषा सीखने के लिए उर्दू ग़ज़लों का वाक्य-विन्यास समझना ज़रुरी
है।
दूसरी बात हिंदी में बिम्बों को वायवीय बना
दिया गया ।उर्दू में मांसल (चाक्षुस) बिम्बों को प्रधानता दी गई। ऐसे बिम्बों में ज्यादा
असर होता है। उर्दू ने छंद से अपना रिश्ता नहीं तोड़ा। कविता छंद के जरिए ही समाज में
पहुँचती है। बच्चों तक को छंद याद हो जाता है। हम जो ज़िंदगी जी रहे हैं कविता में
उसका अक्स आना बहुत ज़रूरी है। मसलन किसी का शेर है-
फुटपाथ पे सो जाते हैं अखबार बिछाकर
मज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाते
हिंदी कवियों की ग़ज़ल के बारे में आपकी क्या राय है?
हिंदी में हजारों लोग ग़ज़ल लिख रहे हैं
मगर तग़ज्जु़ल, लहजा और शेरियत दो-चार लोगों में ही है।उन्हें यह समझना चाहिए कि हर
भाषा ग़ज़ल की भाषा नहीं होती। इसी तरह हर विषय कविता का विषय नहीं होता। विषय के साथ
भावनात्मक जुड़ाव चाहिए।
क्या आपको इस बात का दुख है कि हिंदी के प्रतिष्ठित आलोचकों ने आपकी नोटिस
नहीं ली?
दुख तो है। लोकप्रियता हमारे लिए घातक बन
गई। हम सबसे ज़्यादा छपे। सबसे ज्यादा बिके। आज भी प्रकाशक माँगकर छापते हैं। हम पर
दस पी.एच.डी. भी हो चुके हैं मगर आलोचकों ने कवि सम्मेलन का कवि समझकर हमें कभी पढ़ा
ही नहीं। हमने कभी किसी से भूमिका भी नहीं लिखाई। देश-विदेश में हमारे गीत गए जाते
हैं। आज के सारे कवि मंच पर या फ़िल्मों में जाने के इच्छुक हैं। मगर जो चला जाता है
उसे लोग दूसरी निगाहों से देखने लगते हैं।
आपके ऊपर क्या किसी रचनाकर ने विशेष प्रभाव डाला?
मेरे ऊपर कबीर,रवीन्द्रनाथ टैगोर,खलील जिब्रान
और वै्ष्णव दर्शन का खास प्रभाव है।कबीर का फक्कड़पन, खलील जिब्रान की पीड़ा, टैगोर
का उदात्त तत्व और वैष्णवों का रस तत्व मिला दिया जाए तो नीरज बन जाएगा। मेरे ऊपर कबीर
का असर देखिए….
यह प्यासों की प्रेमसभा है, यहाँ संभलकर आना जी।
जो भी आए यहाँ किसी का हो जाए दीवाना जी।।
आज के काव्य-माहौल और मंचों के बारे में आपकी क्या राय है?
आज कविता भरे पेट का सौदा है समाज की ज़रूरत
नहीं, इसलिए कविता मनोरंजन बन गई है। कविता समाप्तप्राय है इसलिए बेहद ज़रूरी भी है। जब-जब आदमी में नीरसता बढ़ती है तब-तब सरसता के
लिए वह कविता के पास जाता है। आज कवियों को पैसा मिल रहा है मगर मंच पर कविता का अपमान
हो रहा है। यह काव्यप्रधान नहीं अर्थप्रधान युग है। अर्थ पिशाच ने राजनीति,धर्म,कला
और कविता सबका ख़ून चूस लिया है। इसमें कवि का दोष नहीं है। राजसत्ता भ्रष्ट हो तो
सब कुछ भ्रष्ट हो जाता है। पहले कॉलेजों में या पढ़े-लिखे लोगों के बीच में कविसम्मेलन
होते थे। अब पशुमेलों में भी कविसम्मेलन होने लगे हैं। नासमझ आदमी की ताली कवियों को
बरबाद कर देती है। इन तालियों ने कविता को नष्ट कर दिया। इसके लिए सिर्फ कवि ही नहीं
पूरा समाज उत्तरदायी है। गीत को फ़िल्मी गीत ने मार दिया और कविता को नई कविता ने।
दोनों चीजें मर गईं तो सिर्फ़ चुटकुले बचे रह गए। मगर मैं निराश नहीं हूँ। अंधकार गाढ़ा
हो तो कहीं से प्रकाश की किरण भी आती है। मुझे उम्मीद है कि समय बदलेगा और अच्छी कविता
वापस लौटेगी।
मैं 70 साल से मंचों पर हूँ। पढ़ाई, कवि
सम्मेलन और फ़िल्म सब में टाप पर रहा। हास्य-व्यंग की आँधी से मैं ज़रा भी विचलित नहीं
हुआ। अच्छी कविता के क़द्रदान हमेशा थे और हमेशा रहेंगे। 70 साल पहले मैं जिस तरह मंचों
पर गीत पढ़ता था आज भी वैसे ही पढ़ रहा हूँ। समय के प्रवाह में अच्छी चीज़ें ही टिक
पाएंगी।बाकी़ कचरा ख़ुद ही नष्ट हो जाएगा।
प्रमुख पुरस्कार एवं सम्मान
शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए भारत सरकार ने नीरज जी को दो बार सम्मानित किया। पहले पद्म श्री सम्मान (1991), उसके बाद पद्म भूषण सम्मान (2007)। इस के अलवा नीरज जी को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ का एक लाख रुपये का
यश भारती पुरस्कार (1994) भी प्राप्त हुआ। उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार ने नीरज जी को भाषा संस्थान का अध्यक्ष
नामित कर कैबिनेट मन्त्री का दर्जा दिया है।इसके अलावा उन्हें साहित्य वाचस्पति (1991), टैगोर वा्चस्पति (1984), विद्या वाचस्पति
(1995) आदि कई प्रतिष्ठित पुरस्कार भी प्राप्त हुए हैं। सन् 19996 में भीमराव अम्बेडकर
वि्श्व विद्यालय, आगरा ने उन्हें डीलिट की मानद उपाधि भेंट की।
गीतकार नीरज की चर्चित पुस्तकें :
संघर्ष(1944), अंतर्ध्वनि(1946), विभावरी(1949),
प्राणगीत(1951), दर्द दिया है(1955), बादल बरस गयो(1956), नीरज की पाती(1958), दो गीत(1957),
मुक्तकी(1958), आसावरी(1959), गीत भी अगीत भी(1960), नदी किनारे(1961), लहर पुकारे(1962),
कारवां गुजर गया(1963), तुम्हारे लिए(1963), फिर दीप जलेगा(1970), नीरज की गीतिकाएँ(1992),
बंशीवट सूना है(1994), नीरज रचनावली-तीन खंड(1994)।
गद्य कृतियाँ : पंत-काव्य-कला और दर्शन(1960)।
नील पंखी (मौरिस मैटर लिंक के नाटक ‘ब्लू बर्ड’ का अनुवाद)
संपादित कृतियां: लय (त्रैमासिक), हिंदी
के विरह गीत, हिंदी के श्रृंगार गीत, हिंदी रुबाइयाँ, बच्चन-एक युगांतर।
हिंदी सिनेमा में गीतकर नीरज का योगदान:
गीतकार नीरज ने नई उमर की नई फसल, प्रेम पुजारी, शर्मीली, तेरे
मेरे सपने, गैम्बलर, मेरा नाम जोकर, छुपा रुस्तम आदि कई फिल्मों में गीत लिखे।
उनका हर गीत लोकप्रिय हुआ। प्रेमपुजारी और शर्मीली फ़िल्म के लिए उन्हें दो वर्ष लगातार कलकत्ता
का फ़िल्म जर्नलिस्ट अवार्ड प्राप्त हुआ। फ़िल्म जगत में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिये उन्नीस सौ
सत्तर के दशक में लगातार तीन बार नीरज जी को फिल्म फेयर पुरस्कार दिया गया। उनके द्वारा लिखे गये पुररकृत
गीत हैं-
1970: काल का पहिया घूमे रे भइया! (फ़िल्म: चन्दा और बिजली)
1971: बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ (फ़िल्म: पहचान)
1972: ए भाई! ज़रा देख के चलो (फ़िल्म: मेरा नाम जोकर)
नीरज के लोकप्रिय
फ़िल्मगीत :
1.कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे...
2.आज की रात बड़ी शोख़ बड़ी चंचल
है...
3.शोख़ियों में घोला
जाए थोड़ा सा शबाब...
4.फूलों के रंग से दिल
की क़लम से...
5.रंगीला रे तेरे रंग
में...
6.खिलते हैं गुल यहाँ
खिलके बिखरने को...
7.मैंने ओढ़ी चुनरिया
तेरे नाम की...
8.जीवन की बगिया
महकेगी...
9.चूड़ी नहीं ये मेरा
दिल है...
10.दिल आज शायर है ग़म
आज नग़मा...
11.ऐ भाई ज़रा देखके
चलो...
12.छुपे रुस्तम हैं
क़यामत की नजर रखते हैं....
Devmani ji , Neeraj ji aapkaa sanwaad bahut achchhaa lagaa hai . Shochneey baat hai ki hindi ke aalochak unke sahitya ke saath nyaay nahin kar paaye hain .
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