चित्र- में : (बाएं से दाएं)- चित्रकार जैन कमल, शायर
देवमणि पांडेय, शायर ज़फ़र गोरखपुरी, शायर
नक़्श लायलपुरी, कवयित्री माया गोविंद, शायरा दीप्ति मिश्र, लोक गायिका डॉ. शैलेश
श्रीवास्तव और शायर ज़मीर काज़मी
आज की युवा-पीढी की शायरी में जहाँ हर शायर का एक व्याक्तिगत
किरदार है, वहीं ज़रा विस्तार से देखें तो एक सम्मिलित (Collective) भूमिका भी है । देवमणि पाण्डेय की भावनाएं, वेदनाएं और विचार
तकरीबन वही हैं, जो उन के हम-सफ़र रचनाकारों के हैं, मगर ऍपरोच का फ़र्क़ है।
ज़ाहिर है आज के फ़नकारों के ख़यालात और एहसासात एक विस्तृत समकालीनता में पनप रह
हैं। यूँ तो देवमणि पाण्डेय के कलाम में कई पहलू हैं मगर दो पहलू ज़्यादा स्प्ष्ट
हैं। एक तो उनका तज़रुब-ए-इश्क़ (प्रेम-अनुभव) और दूसरे आज के समाज के तज़ाद और
अवसाद के बीच बसर करते हुए सामान्य आदमी का कर्ब और कुढ़न! उन्होंने अपने इश्क़ और
रोमांस के संदर्भ में अगर्चे एक रिवायती बात कही है-
मेरे दौर में भी हैं चाहत के क़िस्से
मगर मैं पुरानी मिसालों में गुम हूं
मगर उन की गज़लों के रूमानी और इश्क़िया अशआर आज के आधुनिक दौर के
इश्क़ का पैराया रखते हैं-
हर शाम अपनी करता हूँ मंसूब
तेरे नाम
दीवारो-दर पे चाँद सजाता हूँ रोज़ मैं
उगाते हम भी शजर एक दिन मुहब्बत का
तुम्हारे दिल की ज़मीं में अगर नमी मिलती
तुम बुद्धू हो, तुम पागल हो, दीवाने हो तुम
उसका मुझसे यह सब कहना अच्छा लगता है
कुछ न कुछ होंगी उसकी भी मजबूरियाँ
जिसने तनहा किया मुझ को संसार में
जहाँ तक ज़िंदगी के अनुभव और समाज की स्थिति के इज़हार का तअल्लुक़
है देवमणि पाण्डेय का फ़िक्री कैनवास बहुत वसीअ न सही, मगर उन्होंने अपने पैरो चली
ज़मीन और अपने सर पर लदे हुए आसमान को अपने क़लम से ब-ख़ूबी दर्शाया है।
सिखाए कैसे कोई उनको बज्म़ की तहज़ीब
शरीफ़ लोंगों में जो
बे-लिबास बैठे हैं
हुशियारी और चालाकी में डूब गई है ये दुनिया
फिर भी सारा ज्ञान छुपा है बच्चों की नादानी में
आदमी पूरा हुआ
तो देवता हो
जाएगा
ये ज़रूरी है कि उसमें कुछ कमी बाक़ी रहे
घरों में हैं महरूमियों के निशां
कि अब रौनक़ें बस दुकानों में हैं
कि अब रौनक़ें बस दुकानों में हैं
सिर्फ़ सच को सराहेगी दुनिया
ऐसे धोके में आप मत रहिये
कितने दिलों में आज भी ज़िंदां हैं कुछ रिवाज
पक्के घरों के बीच में अँगनाइयाँ मिलीं
इस शायर का ये साफ़ सच्चा अपना अपना-सा लहजा पाठक को बड़े मज़े से
अपने करीब कर लेता है और उस से इंसानियत का एक रिश्ता क़ायम कर लेता है। एक
पुर-ख़ुलूस फ़नकार को और क्या चाहिए। देवमणि पाण्डेय का यह काव्य संकलन ‘अपना तो मिले कोई’ पढ़ते हुए आपको ये
अंदाज़ा बख़ूबी हो सकेगा कि उर्दू के आसमान पर हिंदी के सितारे कितनी ख़ूबसूरती से
टाँके जा सकते हैं और हिंदी के गुलशन में उर्दू के फूल कितने प्यार से खिलाए जा
सकते हैं।
सम्पर्क : अब्दुल अहद ‘साज़’, 149,यूसुफ़
मेहर अली रोड,
ज़कारिया मनोर, चौथी मंज़िल,
मुम्बई-400 003,
दूरभाष : 098337-10207/
022- 2342 7824
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