Tuesday, May 2, 2017

मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर - मजरुह सुलतानपुरी

मजरूह सुलतानपुरी
मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर - मजरूह सुलतानपुरी 


सबको मारा जिगर के शेरों ने / और जिगर को शराब ने मारा। इस हक़ीक़त को जीने वाले जिगर मुरादाबादी ज़िंदगी के अंतिम दिनों में जब गम्भीर रूप से बीमार पड़े तो मुम्बई में थे और एक साधारण से होटल में ठहरे हुए थे। एक पत्रकार ने उनका इंटरव्यू किया। उसने एक सवाल किया-‘जिगर साहब, आपने अपनी शायरी के अलावा इस दुनिया को क्या दिया है’ ? जिगर साहब ने फ़ौरन जवाब दिया- ‘मैंने इस दुनिया को मजरूह सुलतानपुरी दिया है’। दूसरे दिन एक उर्दू अख़बार में यह चर्चित इंटरव्यू प्रकाशित हुआ। मजरूह साहब अपने उस्ताद के पास गए। उन्हें एक अच्छे अस्पताल में दाख़िल कराया। ज़रा स्वस्थ हुए तो उन्हें ले जाकर कुछ दिनों अपने घर पर रखकर तीमारदारी की। पूरी तरह स्वस्थ होकर जिगर साहब अपने उस्ताद असगर गोंडवी के शहर गोंडा चले गए। वहाँ फिर से बीमार पड़े और हमेशा के लिए उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। आज जिगर साहब की कोई बात किसी को याद हो या न याद हो मगर मुम्बई के पुराने शायरों को उनका यह जुमला आज भी याद है- ‘मैंने इस दुनिया को मजरूह सुलतानपुरी दिया है’।

मजरूह सुलतानपुरी उर्फ़ असरार हुसैन ख़ान का जन्म सन् 1919 में उत्तर प्रदेश के सुलतानपुर ज़िले की एक रियासत कुड़वार के पास गँजेड़ी गाँव में हुआ। 25 मई 2000 को उनका इंतकाल हो गया। सन् 1994 में मजरूह साहब को जब दादा साहब फाल्के अवार्ड मिला तो मैंने हिंदी दैनिक ‘जनसत्ता’ (मुम्बई) की नगर पत्रिका 'सबरंग' के लिए उनका इंटरव्यू किया था। अब वही धरोहर मैं आपके लिए पेश कर रहा हूँ। मुझे उम्मीद है कि मजरूह साहब की साफ़गोई आपको ज़रूर पसंद आएगी।

मजरुह साहब, आपको ‘फाल्के’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। पुरस्कारों के बारे में आपकी क्या राय है ? 

पुरस्कार तो अक्सर अपनों को ही दिए जाते हैं। फ़िल्मफ़ेयर से लेकर नोबल तक यही होता है। मैं तो चुपचाप लिखने वाला आदमी हूं। इसलिए जब मुझे सूचना मिली कि ‘फाल्के’ पुरस्कार मिलेगा तो एकबारगी विश्वास ही नहीं हुआ। अब तो पुरस्कार ख़रीदे जाते हैं। मैंने एक गीत लिखा था-

‘हम बेख़ुदी में तुमको पुकारे चले गए / साग़र को ज़िंदगी में उतारे चले गए।’ 

इसको ‘फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार’ नहीं मिला। शैलेन्द्र के गीत ‘ये मेरा दीवानापन था’ को मिल गया। काफ़ी लोगों ने मुझसे कहा था कि मजरुह साहब, आपका गीत ज़्य़ादा अच्छा था। युवा जब कॉलेज से निकलता है तो उसे मंज़िल नहीं मालूम होती। इस स्थिति को दर्शाने वाला गीत मैंने लिखा- ‘पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा’। भारी लोकप्रियता के बावजूद इसे पुरस्कार नहीं मिला और गुलज़ार के जाने किस गीत को मिल गया। गुलज़ार के गीत ‘यारा सिली सिली’ को भी पुरस्कार मिला। जबकि मेंहदी हसन ने मुझे बताया था कि यह गीत रेशमा का है। पुरस्कारों का सच यही है।
एक गीतकार के रुप में आज आप खुद को कहाँ पाते हैं ? 

मैं हमेशा दो नावों पर सवार रहा- साहित्य और सिनेमा। जगह दोनों में मिली, लेकिन खुल के किसी के सिर पर नहीं बैठ सका। यानी न इधर के रहे न उधर के। सर्मपण के बावजूद मैं हमेशा नंबर दो पर रहा। राजेन्द्र कृष्ण के ज़माने में भी और आनंद बख़्शी के दौर में भी। आज समीर नंबर वन है तो भी मैं नंबर दो पर मौजूद हूँ। मैं हमेशा विभाजित रहा। लेकिन शायरी को मैंने पहले स्थान पर रखा, क्योंकि फ़िल्म गीत रोटी देता है मगर शायरी सुकून देती है।

शायरी में प्रतिष्ठा के बावजूद किन कारणों से आपको फ़िल्म जगत में आना पड़ा ? 

फ़िल्म के लिए मेरे मन में कभी क्रेज़ नहीं रहा। आना नहीं चाहता था, संयोगवश आ गया। सन् 1940 में जब मैंने सुलतानपुर के पलटन बाज़ार में एक हकीम के रुप में दवाख़ाना खोला था तो उसी समय अचानक शेर कहना शुरु किया। उस वक़्त अवध में मुशायरे बहुत होते थे। लोगों ने सर-आँखों पर उठा लिया, तो हकीमी छोड़कर मैं शायरी में डूब गया। सन् 1945 में जिगर मुरादाबादी मुम्बई के एक मुशायरे में मुझे लेकर आए। मुशायरा बहुत बड़ा था। फ़िल्म जगत के तमाम लोग वहाँ उपस्थित थे। मैं नया था, लेकिन जम गया। बस फ़ौरन कारदार साहब का बुलावा आ गया।

इस तरह मैं फ़िल्म लाइन में आ गया, पहले कोई इरादा नहीं था। उस वक्त एक डिप्टी कलेक्टर को ढाई सौ रुपये वेतन मिलता था। मैं मुशायरों से तीन-साढ़े तीन सौ कमा लेता था। इसलिए पहले तो मैंने इंकार कर दिया। जिगर साहब ने तब मुझे समझाया कि अभी तुमने न घर बनाया न शादी की। बीमार पड़ गये तो क्या करोगे ? आफ़र स्वीकार कर लो। पसंद न आए तो बाद में छोड़ देना। तब मैं तैयार हो गया। पाँच सौ रुपये मेरा वेतन निश्चित हुआ और कारदार साहब की फ़िल्म 
‘शाहजहाँ’ के गीत मैंने लिखे। गीत तो सभी पसंद किए गए, लेकिन एक गीत को सहगल साहब ने लीजेंड बना दिया। गीत था – ‘जब दिल ही टूट गया, हम जीकर क्या करेंगे ?’ यह फ़िल्म 1947 में आई। इसके बाद विभाजन के कारण छह-सात महीने तक फ़िल्म उद्योग बंद ही रहा। 1949 में मैंने महबूब खान की फ़िल्म ‘अंदाज़’ के गीत लिखे। वे भी कामयाब हुए।

सुना है उस दौरान आपको जेल भी हो गई थी ? 

हाँ, सही बात है। मुम्बई के परेल इलाक़े में मज़दूरों की एक सभा थी। मुझे वहां गीत पढ़ने के लिए बुलाया गया। मुझसे कहा गया कि मैं इतना सरल गीत पढूं कि अनपढ़ मज़दूरों की समझ में भी वह आ जाए। मैंने बहुत सरल भाषा में गीत लिखा, लेकिन बात वही थी, जो मैं कहना चाहता था। गीत के बोल थे –

अमन का झंडा इस धरती पर किसने कहा लहराने  पाए 
ये
 भी है कोई हिटलर का चेला मार ले साथी जाने  पाए
 

उस वक़्त कामनवेल्थ का काफी ज़ोर था। मैंने उसकी भी ख़बर गीत में ली थी। कुछ लोगों ने गलत ढंग से उसमें नेहरु का नाम जोड़कर प्रचारित कर दिया कि मैंने नेहरु को मारने की बात की है। अदालत में मेरी पेशी हुई। डिटेंशन ऐक्ट लगाया गया। मुझसे कहा गया कि आपने नेहरु को मारने के लिए भीड़ को उकसाया। माफ़ी मांगिए। मैं ठहरा स्वाभिमानी आदमी। माफ़ी मांगने का मतलब था अपनी ज़हनी सोच को नकारना। मैंने इंकार किया तो डेढ़ साल की कै़द सुनाई गई। आर्थर रोड जेल में बंद कर दिया गया। उसी दौरान ‘अंदाज’ फ़िल्म रिलीज़ हो गई। गाने लोकप्रिय हुए तो काम भी मिला। कमाल अमरोही ने फ़िल्म ‘दायरा’ और गुरुदत्त ने ‘बाज़’, ‘जाल’ आदि फ़िल्मों के गीत लिखवाए।

फ़िल्म जगत के पुराने गीतकारों और आज के गीतकारों के बारे में आपकी क्या राय है ? 

मैं जब यहाँ आया तो फ़िल्म जगत में ख़ुमार बाराबंकवी, शकील बदायूंनी, साहिर लुधियानवी, कैफ़ी आज़मी, अली सरदार जाफ़री, राजेन्द्र कृष्ण जैसे गीतकार मौजूद थे। हम सब जो गीत लिखते थे, उसकी भाषा अच्छी होती थी। वह व्याकरण की दृष्टि से भी शुध्द होता था और उसके भावों में एक ख़ूबसूरती होती थी। एक ख़ास बात यह थी कि हम सब मिल बैठकर आमने-सामने एक दूसरे के गीतों को क्रिटिसाइज़ करते थे। मैंने फ़िल्म ‘दिल्ली का ठग’ में एक गीत लिखा था - ‘सी ए टी कैट, कैट माने बिल्ली, दिल है तेरे पंजे में तो क्या हुआ’।

तब हमारे गीतकार मित्रों ने इसकी ख़ूब आलोचना की। मैंने उनसे कहा कि यह गीत किशोर कुमार जैसे उछल-कूद वाले अभिनेता के लिए लिखा गया है और सिचुएशन के अनुसार इसका कन्टेन्ट भी ठीक है तो मित्रगण सहमत हुए। क्योंकि शेक्सपियर भी अपने ‘क्लाउन’ के लिए कुछ अलग तरह के ही संवाद लिखते हैं, लेकिन वहां भी भाषा की एक मर्यादा होती है। अब कंसेप्शन बदल गया है। आज गीत में शायरी ऐब मानी जाती है।

अब तो अर्थहीन शब्द चलते हैं। गीत का सोर्स तो ‘फ़ोक’ होता है लेकिन अब वह नहीं रहा। गीत में बहुत बड़ी बात कही जा सकती है, लेकिन अब पहले जैसी सादगी और गहराई नहीं रही। अब तो गीतों में बहुत ‘वल्गराइजेशन’ आ गया है। ग़लत भाषा में लिखना और ‘गिमिक’ प्रस्तुत करना फैशन बन गया है। बहुत दुखी हूं मैं इससे। कभी-कभी तो रोने को जी चाहता है।

पहले के अच्छे गीतकारों की प्रतिभा का आज उचित उपयोग नहीं हो रहा है। इस स्थिति को आप किस रुप में देखते हैं? 

अच्छी प्रतिभा के उपयोग की आज गुंजाइश ही कहाँ रही ? क्योंकि लेखन में एक गिरावट आ गई है। और मैं भी तो इसी में शामिल हूँ। जी बहुत चाहता है कि हमारे अनुभवी लेखक भाषा का सम्मान करें, लेकिन सिर्फ़ मेरे सोचने से क्या होता है। हर बदमाशी के लिए आदमी कोई दर्शन गढ़ लेता है। ‘कमोडिटी’ बन गया है आज सब कुछ। और मेरा भी हाल यह है कि –तूले ग़मे-हयात से घबरा रहा हूं मैं / घबरा रहा हूं और चला जा रहा हूं मैं

आपके गीत अपने नएपन, ताज़गी और अंदाज़ में अलग ही नज़र आते हैं। इसके लिए आपने किन बातों पर ध्यान दिया ? 

मैं चरित्रों के व्यक्तित्व, व्यवहार और बोलचाल को ध्यान में रखकर ही गीत लिखता हूँ। एक तरफ़ मैंने लिखा-‘गम दिए मुस्तकिल’, तो दूसरी तरफ़ लिखा- ‘कभी आर कभी पार लागा तीरे नज़र। तीसरी तरफ़ ‘छोड़ दो आंचल ज़माना क्या कहेगा’ जैसे गीत लिखकर मैंने रोमांटिक कामेडी गीतों के लिए एक नई राह बनाई। फ़िल्म क्षेत्र में सक्रियता के बावजूद मैंने मुशायरों में जाना बंद नहीं किया। सन् 1983 में मैं एक मुशायरे में अमेरिका गया। जगह-जगह लोग मुझे सुनना चाहते थे। साढ़े चार महीना मुझे रुकना पड़ गया। लौटकर आया तो देखा मेरी जगह कोई और बैठ गया था। फ़िल्म ‘क़यामत से क़यामत तक’ के ज़रिए मेरी वापसी हुई।

आज की फ़िल्में आपको कैसी लगती है ? 

अब नान-प्रोफेशनल प्रोड्यूसरों की बाढ़ आ गई है। पहले लोग सामाजिक ज़िम्मेदारी महसूस करते थे और ऐसी फ़िल्में बनाते थे, जो सपरिवार देखी जा सकें। सन् 1994-95 से प्रोड्यूसरों की जो भीड़ आई है उसे समाज की कोई चिंता नहीं है। पहले तवायफ़ के परिवार से नायिकाएं आती थीं, मगर इनका पहनावा शरीफ़ घरों की औरतों की तरह होता था। आज की अभिनेत्रियां अच्छे घरों से आती हैं मगर इनका पहनावा तवायफ़ों से भी गया-बीता है। अमरीकी बनना चाहते हैं। लेकिन न अमरीकी बन पाते है और न भारतीय। तीतर-बटेर बनकर रह जाते हैं। इन्हें लड़के-लड़कियों के बिगड़ने की चिंता नहीं है। समाज के मूल्यों का ध्यान नहीं है। अब अधकचरा लेखन चल रहा है। गीत के नाम पर अर्थहीन शब्द चलते हैं।

क्या अच्छे गीतों का जमाना कभी फिर लौटेगा ? 

नौशाद आदि के ज़माने में गीतों का जो स्तर था, वह अब वापस नहीं आने वाला। बच्चों में भी अब वैसी साहित्यिक और सांस्कृतिक समझ नहीं है। प्राइमरी में ही उन्हें दस-दस विषय पढ़ने पड़ते हैं। फलस्वरुप वे ‘जैक ऑफ आल’ और मास्टर ऑफ नन’ बनते हैं। उनका मानसिक स्तर काफ़ी नीचे होता है। आज गीतों में शायरी ऐब मानी जाती है। कई बार मुझे फ़िल्म में लेकर भी छोड़ दिया गया। उनको लगा कि मेरे गीतों में शायरी ज़्यादा है। पब्लिक की भी पसंद सस्ती होती जा रही है। उन्हें लगता है यही अच्छे गीत हैं। मुझसे लिखवाने वाले अब बहुत थोड़े रह गये हैं। गीत और कविता का फ़र्क़ हर ज़माने में रहा है। गीत, कविता का ज़्यादा बोझ नहीं उठा पाता। ‘कितनी अकेली कितनी तनहा मैं लगी तुझसे मिलने के बाद’ या ‘वादियां मेरा दामन रास्ते मेरी बांहे’ अथवा ‘रहे न रहें हम, महका करेंगे’ जैसे काव्यात्मक गहराई वाले गीत अब नई पीढ़ी के पल्ले नहीं पड़ते। ऊँचे स्तर से वे घबरा जाते हैं।

अपने बाद की पीढ़ी के गीतकारों के बारे में आपकी क्या राय है ? 

अब तो नया ज़माना आ गया है इसलिए शैली भी बदल गई है। आज के गीतकार के लिए ज़रुरी हो गया है कि वह कैबरे, कामेडी, भजन, ग़ज़ल, प्रेमगीत सब कुछ लिख सके। सभी पर उसकी कमांड होनी चाहिए। मेरे बाद की पीढ़ी में आनंद बख़्शी, फ़ारुक़ क़ैसर, एस.एच.बिहारी आदि ने अच्छे गीतलिखे। अनजान भी कभीकभी अच्छा लिखते हैं। जावेद अख्त़र और हसन कमाल में बहुत अच्छीप्रतिभा है। निदा फ़ाज़ली क़तार में हैं। लेकिन मुझे लगता है उन्होंने अभी तक कुछ भी उल्लेखनीय नहीं लिखा है।


साहित्य का ‘इक़बाल सम्मान’ मिलने पर आपने कैसा महसूस किया था ? 

अच्छा लगा था। तीन साल से इसके लिए मेरा नाम लिया जाता था और हटा दिया जाता था। मेरे पहले यह जस्टिस
 आनन्द नारायण मुल्ला को मिला। वे अच्छे शायर हैं, सीनियर हैं। लेकिन शायरी ही देखी जाए तो मुझे उनसे पहले मिल जाना चाहिए था। 
मैंने प्रगतिशील ग़ज़लें लिखकर एक नराह निकाली। 

लोग प्रगतिशील ग़ज़लों के लिए फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को पहला श्रेय देते हैं ? 

बात बिल्कुल साफ़ है, मैं 1945 में प्रलेस (P.W.A.) से ज़ुडा। 1947 में मेरे कई प्रगतिशील शेर लोगों की ज़बान पर चढ़ चुके थे। फ़ैज़ का प्रगतिशील ग़ज़लों का संग्रह ‘दस्त-ए-सबा’ 1953 में आया। लोग इससे पहले उनकी प्रगतिशील ग़ज़लों से वाक़िफ़ नहीं थे। प्रगतिशील होते हुए भी फ़ैज़ हमेशा रोमांटिक बने रहे। बग़ैर माशूक़ के वे बात ही नहीं करते। असमानता, शोषण और जु़ल्म की बात भी वे माशूक़ के गले में बाहें डालकर ही करते हैं। उनकी ‘मुझसे पहले सी मुहब्बत मेरी महबूब न मांग’ तथा ‘चन्द रोज़ और मेरी जान’ आदि रचनाएं उस संदर्भ में देखी जा सकती हैं। मेरी ग़ज़लों का चरित्र हमेशा आंदोलनात्मक रहा।

अभी आपने अपनी प्रगतिशील ग़ज़लों का ज़िक्र किया। इसके बारे में ज़रा और खुलासा करें ? 

कविता की तमाम आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए अपने समय की सबसे ज़्यादा चुभने वाली चीज़ों को साथ लेकर जो बातें कही जाती हैं, वही प्रगतिशील हैं। पहले तो ‘महबूब’ ही ग़ज़ल की मंज़िल थी, लेकिन बाद में इसमें बदलाव आया। उदाहरण के लिए मैं अपनी कुछ प्रगतिशील रचनाओं के शेर सुना रहा हूं-

1.मैं अकेला ही चला था जानिबे-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया। 

2.सर
 पर हवाएं जु़ल्म चलें सौ जतन के साथ
अपनी कुलाह कज है उसी बांकपन के साथ। 

3.देख
 ज़िंदां से परे रंग-ए-चमन जोशे बहार
रक़्स करना है तो फिर पांव की ज़ंजीर  देख। 

4.हम
 भी हमेशा क़त्ल हुए हैं और तुमने भी देखा दूर से लेकिन, 
ये
  समझना हमको हुआ है जान का नुक़्सां तुमसे ज़ियादा।
 

ये बातें मैंने बहुत पहले कही थीं, लेकिन इनकी प्रासंगिकता हमेशा रहेगी। इसलिए ये चीजें शाश्वत हैं। फ़ैज़ की प्रगतिशील ग़ज़लों का संग्रह ‘दस्त-ए-सबा’ सन् 1953 में देखा गया, जबकि मैंने ये ग़ज़लें 1945 में लिखीं थीं। इसीलिए मैं कहता हूं कि प्रगतिशील ग़ज़लों की शु्रूआत मैंने की। फ़ैज़ और मजाज़ मुझसे सीनियर थे और बड़ी ख़ूबसूरत ग़ज़लें लिखते थे। उनके सामने मुझे अपनी ग़ज़लें काफी खुरदुरी लगती थी। मैंने फ़ैज़ और मजाज़ से बहुत कुछ सीखा। फ़ैज़ ग़ज़लों में हमेशा मीठा ही बोलते रहे। मैं समझता हूं कि यह भी एक प्रकार का ऐब है। कभी-कभी कड़वा बोलना भी बहुत ज़रुरी होता है, लेकिन फ़ैज़ का हाल तो यह था कि-

ग़मे-जहां हो, रुख़े-यार हो कि दस्ते-अदू 
सुलूक
 जिससे किया हमने आशिक़ाना किया
 

शांति के ज़माने में दुश्मनों को माफ़ करना तो ठीक है लेकिन जंग के मैदान में दुश्मन से आशिक़ाना व्यवहार कैसे
 हो सकता है ? इसके बावजूद फ़ैज़ से हमने सीखा है, वे हमारे बड़े शायर हैं। 

जिस शायर (इक़बाल) के नाम से आपको सम्मान दिया गया, उनकी शायरी आपको कैसी लगती है ? 

इक़बाल उर्दू शायरी की सर्वोच्च शैली के कवि हैं। वे बीसवीं सदी के सबसे बड़े शायर हैं। कुछ लोग उनके साथ फ़ैज़ का नाम रख देते हैं। मुक़ाबला वैसा ही है जैसे बड़े गु़लाम अली खां और मोहम्मद रफ़ी। मोहम्मद रफ़ी की नक़ल करने वाले बहुत मिलेंगे क्योंकि ऐसा करना आसान है। फ़ैज़ की शायरी इक़बाल से बहुत सस्ती है। इक़बाल के साथ जोश मलीहाबादी का ही नाम लिया जा सकता है।

लेकिन आप यह भी स्वीकार करते हैं कि आपने ख़ुद फ़ैज़ से बहुत कुछ सीखा है ? 

हां, सही बात है। बाद में आने वाला शायर अपने सीनियर से सीखता है। मैंने फ़ैज़ से रसीला अंदाज़सीखा। मैं चाहता था कि मेरे बयान में तनतना, जोश और ज़लज़ला के साथ ही रस हो, मिठास हो। मैंने ऐसा लिखा भी।‘साथी’ को ‘महबूब’ माना। एक शेर देखिए –

मुझे सहल हो गईं मंज़िलें वो हवा के रुख़ भी बदल गए 
तेरा
 हाथ, हाथ में आया गया कि चराग़ राह में जल गए
 

मैंने मजाज़ से भी बहुत कुछ सीखा। मजाज़ ने उर्दू नज्म़ में सबसे पहले नई राह बनाई। फ़ैज़ भी उनके पीछे चले। मजाज़ की ‘ख़्वाब-ए-शहर’ तथा ‘रात और रेल’ जैसी नज़्में पहले नहीं लिखी गईं थीं। मजाज़ की ग़ज़लों में भी ऐसे प्रगतिशील शेर थे कि मुझे आगे बढ़ने की राह मिली। फ़ैज़ का लहजा धीमा था। पर यह धीमा लहजा गंभीर भी था।

फ़िराक़ गोरखपुरी का लबो-लहजा आपको कैसा लगता है ? 

फिराक़ का लबो-लहजा बिलकुल नया है। उन्होंने संस्कृत, अंग्रेज़ी और फ़ारसी से फा़यदा उठाकर बात कही। पहले ग़ज़ल का बैक ग्राउंड ‘तसव्वुर’ था। उन्होंने हिन्दू दर्शन के अनुसार सेक्स को इबादत का रूप देकर ग़ज़ल के पसमंज़र को तसव्वुर से आज़ाद करके यथार्थवादी आधार दिया। मतलब उन्होंने परंपरा की पृष्ठभूमि को बदला। लेकिन सेक्स के ज़रिए इबादत को लाना सबके वश का नहीं है। यह बहुत बड़े शायर का काम है। इससे ग़ज़ल ज़मीन पर आकर खड़ी हो गई। मगर इक़बाल तो खु़द में एक पहाड़ हैं। उनके सामने फ़िराक़ नहीं खड़े किए जा सकते। हाँ,फ़िराक़ ने उर्दू ग़ज़ल को एक नया लबो-लहजा दिया। इससे ग़ज़ल का काफ़ी फ़ायदा हुआ।

बंबई (मुम्बई) में आपको सबसे अच्छा शायर कौन लगता है ? 

अगर गीतकार के रूप में देखें तो पहले स्थान पर जावेद अख़्तर, दूसरे स्थान पर हसन कमाल और तीसरे स्थान पर निदा फ़ाज़ली को रखा जा सकता है। लेकिन शायर के रुप में मुझे निदा फ़ाज़ली सबसे बेहतर लगता है। पता नहीं क्यों वह मेरी मुख़ालिफ़त भी करता है। निदा ने परंपरा से हटकर कुछ कहने की कोशिश की और अच्छा कहा। उसकी शायरी की ज़बान बहुत अच्छी है। उसे मामूली आदमी भी समझ लेता है। इनकी कमी यह है कि ये तीनों लोग अंग्रेज़ी और फ्रेंच साहित्य से प्रभावित हैं। इनकी बुनियाद बाहर से जुड़ी है।

उर्दू में गीत को और हिन्दी में ग़ज़ल को उचित सम्मान क्यों नहीं मिला ? 

हिंदी की जड़ें ज़मीन में हैं। उर्दू इस मामले में पीछे है। ग़ज़ल महफ़िल से जुड़ी रही है। गीत में धरती की बात आएगी तो हिन्दी मे अच्छा लगेगा। हिन्दी जितनी नेशनल है, उर्दू उतनी नहीं। उर्दू का मिज़ाज उतना भारतीय नहीं है, जितना होना चाहिए। इधर कई भाषाओं में ग़ज़लें कही जा रही हैं। लेकिन मुझे गुजराती ग़ज़लें उर्दू के अधिक क़रीब लगती हैं। ग़ज़ल और नज़्म की शैली अलग है। ग़ज़ल की शैली ही हिन्दी वालों की पकड़ में नहीं आई। ग़ज़ल हर लफ़्ज़ का बोझ नहीं उठा सकती।

देवमणि पांडेय : 98210-82126
devmanipandey@gmail.com 


Friday, August 22, 2014

शायर क़तील शिफाई से देवमणि पाण्डेय की मुलाक़ात

कथाकर धीरेन्द्र अस्थाना, कवि देवमणि पांडेय और शायर क़तील शिफ़ाई (मुम्बई 1995)

              मैं तुझको भूल के ज़िंदा रहूँ ख़ुदा न करे

मरहूम शायर क़तील शिफाई ऐसे लोकप्रिय शायर हैं जिनके कलाम ग़ज़ल गायकों के ज़़रिए दुनिया के कोने कोने में पहँचे और पसंद किए गए। क़तील शिफाई के शेर हमारे मुल्क में भी इतने अधिक लोकप्रिय हुए कि काफी़ लोग उन्हें हिंदुस्तान का ही शायर समझ लेते हैं। इसमें क़तील का कोई कु़सूर नहीं। दरअसल उनका जन्म अविभाजित हिंदुस्तान में ही हुआ। बंटवारे के बाद वे पकिस्तान के हिस्से में पड़ गए।

सन् 1995 में जश्न- ए- मजरूह सुलतानपुरी कार्यक्रम में शिरकत करने के लिए क़तील साहब मुम्बई तशरीफ़ लाए थे। नेहरू सेंटर में आयोजित इस जलसे और मुशायरे में उन्होंने शिरकत की। 77 साल की उम्र में वो जवां दिलों की धड़कन बढ़ाने वाली ग़ज़ल पेश कर रहे थे-
गुस्ताख़ हवाओं की शिकायत न किया कर / उड़ जाए दुपट्टा तो धनक ओढ़ लिया कर।

मुम्बई के शायर क़तील राजस्थानी ने जब इस लोकप्रिय शायर से हमारा तआरूफ़ कराया तो वे इस तरह दिल खोलकर मिले जैसे हमारी वर्षों की जान पहचान हो। अगले ही दिन सुबह हम खार इलाक़े की संगीता बिल्डिंग के टेरेस पर बैठे ज़िंदगी और शायरी पर गुफ़्तगू कर रहे थे । हमने पहले उनसे यही सवाल पूछा-

क़तील साहब, आप प्यार-मुहब्बत पर बहुत लिखते हैं। क्या एक बार की मुहब्बत आप से इतना सारा लिखवा रही है ?

क़तील साहब के चेहरे पर एक स्वाभाविक मुस्कान थिरक उठी- लोग फैशन के तौर पर भी रूमानी शायरी करते हैं मगर उसमें कोई जान नहीं होती। मैंने तो हमेशा तजर्बे से गुज़रकर लिखा। मेरी रूमानी शायरी मेरी आपबीती है। मैंने एक से ज़्यादा बार मुहब्बत की है। अभी भी कर रहा हूँ मगर इस वक़्त मैं जो मुहब्बत कर रहा हूँ वह मेरी आख़िरी मुहब्बत है। पहले की मुहब्बतें ज़्यादातर ट्रेजिक रहीं। अब मेरे चारों और खु़शी ही खु़शी बिखरी हुई है। आमतौर पर मुहब्बत का अंजाम ट्रेजिक ही होता है। मगर-

कैसे न दूँ क़तील दुआ उसके हुस्न को
मैं जिसपे शेर कहके सुख़नवर बना रहा

क़तील साहब की शायरी की भाषा अवाम की भाषा है। उसमें कहीं हिंदी-उर्दू की दीवार नहीं नज़र आती। यही कारण है कि उनकी रचनाएं शहर ही नहीं दूरदराज के गाँव तक पहुँची और वहाँ भी लोकप्रिय हुईं। मिसाल के तौर पर चाँदी जैसा रंग है तेरा सोने जैसे बाल, मोहे आई न जग से लाज,उफ् वो मरमर का तराशा हुआ शफ़्फ़ाफ़ बदन / देखने वाले तुझे ताजमहल कहते हैं आदि रचनाएँ देखी जा सकती हैं । बातचीत में हमारे बीच औपचारिकता की कोई दीवार नहीं थी। इसलिए हमने क़तील साहब से एक मजा़क कर दिया-

क़तील साहब, आप कम पढ़े लिखे हैं इसलिए सरल भाषा में लिखते हैं अथवा आपने जानबूझकर अपनी शायरी की भाषा ईजाद की है ?
क़तील साहब के चेहरे पर मुस्कान खेलने लगी। बोले- भाई मैं अकादमिक रूप से सचमुच कम पढ़ा लिखा हूँ। सिर्फ़ हाईस्कूल तक। मगर उसके बाद मैंने बहुत पढ़ाई की। मैं उर्दू-फा़रसी के शब्दों को लेकर इतनी कठिन शायरी लिख सकता हूँ कि किसी की समझ में न आए। मगर मैं जनता की जु़बान में शायरी करता हूँ ताकि वह जनता की समझ में आए। इसीलिए मुझे जनता का बहुत प्यार भी मिला। दरअसल मैंने बचपन में ग़ज़लें पढ़ने का शौक पाला। अगर उस कच्ची उम्र में शायरी समझ में न आई होती तो मैं शायर ही नहीं बनता। इसलिए खु़द-ब-खु़द मेरी शायरी एक ऐसी सहज भाषा में ढलती चली गई जिसे ज़्यादा से ज़्यादा लोग समझ सकें।

प्यार करने को जो माँगा और हमने इक जनम
ज़िंदगी ने मुस्कुराकर हमको मर जाने दिया


शायर क़तील शिफ़ाई के साथ कवि देवमणि पांडेय

क़तील साहब ने अचानक अपने बचपन की किताब खोल दी। मैंने सोचा अब इन्हें बिना टोके हुए सिर्फ़ सुनना बेहतर है। उन्होंने बचपन की किताब का पहला वरक़ खोला तो वहाँ फ्रंटियर पाकिस्तान की सूबा सरहद पर स्थित एक हराभरा क्षेत्र हरीपुर हजारा नज़र आने लगा। इस हरे भरे मंज़र के बीच उन्हें अपना बचपन साफ़-साफ़ दिखाई पड़ रहा था। वहाँ हरियाली, फूल और लोकगीतों की भरमार है। इसी से लोग उसका नाम हरीपुर समझते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि इसे शहीद हरीसिंह नलवा ने आबाद किया था। उन्हीं के नाम पर इसका नाम हरीपुर हजारा पड़ा। इस गाँव में 25 दिसंबर 1919 को क़तील शिफाई का जन्म हुआ। वहीं सरकारी हाईस्कूल में उनकी शिक्षा हुई। छात्र जीवन में ही शायरी में दिलचस्पी लेने लगे। अपने इस शौक़ के चलते वे विद्यालय की सांस्कृतिक संस्था बज़्म-ए-अदब के सचिव बन गए। सारी सांस्कृतिक गतिविधियों की ज़िम्मेदारी क़तील के कंधों पर आ गई। उस समय तक वहाँ के लोग मुशायरे के नाम से भी वाकिफ़ नहीं थे। क़तील ने वहाँ मुशायरा शुरू करवाया।


क़तील शिफाई एक दौलतमंद परिवार से तआल्लुक़ रखते थे। हाईस्कूल पास करने पर पिता ने पढ़ाई बंद करवा दी। उनका कहना था कि जब घर में दौलत मौजूद है तो पढ़कर क्या होगा? लेकिन पैतृक व्यवसाय क़तील को रास नहीं आया। कुछ साल में ही उन्होंने सब कुछ गँवा दिया।

शायरी में दिलचस्पी के कारण पढ़ने की धुन सवार हुई। क़तील शिफ़ाई कॉलेज तो नहीं जा सके, मगर उन्होंने घर पर ही उर्दू-फा़रसी का सारा क्लासिक पढ़ डाला। विश्व की चर्चित कृतियों के अंग्रेजी अनुवाद पढ़े। वे खु़द कॉलेज भी नहीं जा सके, लेकिन उन पर पी.एच.डी. की गई। क़तील शिफ़ाई को इस बात का अफ़सोस था कि उन्हें आला तालीम हासिल नहीं हुई। दौलत के गु़रूर में पिता ने पढ़ाई बंद करवा दी। महज 17 साल की उम्र में उनकी शादी करके उन पर पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ भी डाल दी गईं। अब तक क़तील शिफ़ाई के शेरों में कच्चापन था। परंपरा को मद्देनज़र रखते हुए उन्होंने अपने एक रिश्तेदार शिफ़ा को अपना उस्ताद बनाया। वे बहुत विद्वान थे। उन्होंने क़तील शिफ़ाई की शायरी की बुनियाद पुख़्ता कर दी। उनकी शायरी में निखार आया। अपने उस्ताद को सम्मान देते हुए उन्होंने अपना तख़ल्लुस शिफ़ाई रख लिया और तब से वे क़तील शिफ़ाई बन गए। अब उनकी शायरी में जा़ती तजर्बे शामिल हुए तो उसे नया रंग मिल गया।

फैला है इतना हुस्न कि इस कायनात में
इंसां को बार-बार जनम लेना चाहिए

गाँव से रावलपिंडी शहर 50 मील दूर था। घर की माली हालत बहुत ख़राब हो गई तो क़तील शिफ़ाई नौकरी के लिए रावलपिंडी चल पड़े। दोस्तों और रिश्तेदारों ने अजीब-अजीब बहानों से पैसे मांगकर क़तील शिफाई को बिलकुल निर्धन कर दिया था। लगभग 20 साल की उम्र में उन्होंने एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में बुकिंग क्लर्क की नौकरी कर ली। तनख़्वाह 60 रूपए प्रतिमाह थी। इस समय तक शायरी में क़तील साहब का नाम चर्चित होने लगा था। लोकप्रिय पत्रिका स्टार के संपादक क़मर जलालाबादी ने उनकी कई रचनाएं छापीं। वे क़तील को बहुत अच्छी जगह देते थे। उन्होंने क़तील को बहुत अच्छी तरह प्रमोट किया। उस समय लाहौर की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका अदब-ए-लतीफ़ की ओर से बुलावा आया तो नौकरी छोड़कर क़तील शिफ़ाई वहाँ सहायक संपादक बन गए। उस समय वहाँ  शायरों, गायकों, आलोचकों और रंगमंच कलाकारों की भरमार थी। क़तील साहब को गाने का शौक़ हुआ तो उन्होंने कुछ समय गाना भी सीखा। मगर शायरी का पलड़ा भारी रहा।

वह प्रगतिशील शायरी का दौर था। अदब-ए-लतीफ़ में कृश्नचंदर,राजेंद्र सिंह बेदी,सआदत हसन मंटो, उपेंद्रनाथ अश्क और इस्मत चुगताई जैसे अफ़सानानिगार छपते थे तो फै़ज़ अहमद फै़ज़,नून मीम राशिद, अहमद नदीम कासमी जैसे प्रगतिशील शायर भी छपते थे। एक प्रकार से यह प्रगतिशीलों की प्रतिनिधि पत्रिका थी। सालभर बाद ही कुछ कारणों से क़तील शिफ़ाई को यह पत्रिका छोड़कर वापस जाना पड़ा। मगर एक फ़िल्म कंपनी उन्हें फिर लाहौर ले आई। दो माह बाद फ़साद शुरू हो गए। फिर उसके बाद देश का विभाजन हो गया। क़तील हमेशा के लिए लाहौर के हो गए।

आजा़दी के बाद क़तील शिफ़ाई ने पत्रकारिता शुरू की। वे मशहूर फ़िल्म साप्ताहिक अदाकार के संपादक बन गए। कुछ समय बाद उन्हें अदब-ए-लतीफ़ ने वापस बुलाया। यह मासिक पत्रिका थी। क़तील एक साथ दोनों काम देखने लगे। उन्होंने विभाजन के पहले संगीतकार श्यामसुंदर की फ़िल्म में पहला गीत लिखा था। विभाजन के बाद सन् 1948 में उन्होंने पहली पाकिस्तानी फ़िल्म तेरी याद में गीत लिखे। इस तरह उन्हें पाकिस्तान का पहला फ़िल्म गीतकार होने का भी श्रेय प्राप्त है।

क्या विभाजन के बाद क़तील शिफ़ाई का मन भारत आने को नहीं हुआ ?
उदास लहजे में उन्होंने बताया- विभाजन के बाद डेढ़ साल तक साहिर लुधियानवी पाकिस्तान में थे। वे आने लगे तो मैं उनके साथ मुम्बई आना चाहता था। मगर उस वक़्त एक लड़की से मेरा इश्क़ चल रहा था। लड़की अगर हिंदुस्तान आती तो यहाँ उसके लिए काफी़ ख़तरे थे। इस तरह इश्क़ ने मुझे रोक लिया और मैं वहीं का वहीं रह गया।
वो दिल ही क्या तेरे मिलने की जो दुआ न करे
मैं तुझको भूल के ज़िंदा रहूँ, ख़ुदा न करे

क़तील शिफ़ाई ने लगभग 300 फिल्मों में गीत लिखे । इनमें चार-पाँच भारतीय फ़िल्में भी शामिल है। महेश भट्ट की फिर तेरी कहानी याद आईऔर नाराज़ फ़िल्मों में भी उनके गीत हैं। फ़िल्मों में व्यस्त होने के बावजूद वे लगातर ग़ज़लें भी लिखते रहे। क़तील साहब की 20 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी किताबों के नाम काफी़ दिलचस्प होते हैं, मसलन- हरियाली, गजर, जलतरंग, झूमर, छतनार, गु्फ़्तगू, अबाबील, बरगद, घुंघरू, समंदर में सीढ़ी आदि।

अदब में इतना योगदान करने पर भी आलोचकों ने क़तील शिफ़ाई की उचित नोटिस क्यों नहीं ली ?

क़तील साहब कहते हैं- मैंने कभी आलोचकों की परवाह नहीं की बल्कि हमेशा पाठकों की परवाह की। आलोचकों के पसंदीदा शायरों का एक एडिशन भी पूरा नहीं बिकता और मेरी किताबों के दस-दस एडिशन बिक जाते हैं। पढ़ने वाले सच्चे हैं। मुझे उनकी पसंद पर भरोसा है। मुझे फ़िराक़ गोरखपुरी, फै़ज़ अहमद फै़ज़, अहमद नदीम कासमी और जोश मलीहाबादी जैसे बड़े अदीबों से तारीफ़ हासिल हुई। हिंदुस्तान के जाने माने समीक्षक गोपीचंद नारंग ने मेरी शायरी को अच्छी तरह समझा और निष्पक्ष समीक्षा की। हमारे मुल्क पाकिस्तान में आलोचकगण भूमिका पढ़कर समीक्षा लिखते हैं। यहाँ हिंदुस्तान में नारंग साहब ने पढ़कर लिखा। इस मामले में खुशवंत सिंह भी सच्चे और खरे आदमी हैं। उन्होंने मुझ पर जो कुछ लिखा मैं उसका क़ायल हूँ।

मैं तो प्रगतिशील आंदोलन से जुड़ा रहा, मगर अपनी चाल हमेशा अलग रही। मैंने मुक्का नहीं ताना। नारा नहीं लगाया। अगर मेरी महबूबा ग़रीबी की वजह से मुझे छोड़ देती है, तो मैं विश्लेषण करूँगा। इसकी वजह में भी व्यवस्था होती है। यह लिखना भी प्रगतिशील है। खु़द को प्रगतिशील कहने वाले कई लेखकों ने खेत-खलिहान और गाँव नहीं देखे। कारखा़ना, झोपड़पट्टी और मज़दूर बस्ती नहीं देखी। मगर सब पर लिखते हैं। मैं तो सिर्फ़ अपने अनुभव लिखता हूँ। मेरे ख़्याल से मंटो सबसे ज़्यादा प्रगतिशील हैं जो वेश्याओं पर भी लिखते हैं और सच्चा लिखते हैं।

अचानक क़तील साहब को कुछ याद आ गया। वे उठकर कमरे के भीतर गए और अपनी एक किताब लेकर आए। इसकी भूमिका फै़ज़ अहमद फै़ज़ ने लिखी थी। फै़ज़ साहब के शब्दों में-क़तील शिफ़ाई तरक़्क़ीपसंद काफ़िले वालों के साथ भी हैं और उनसे जुदा भी। अगर संवेदना को लिखा जाए तो वे अपने साथियों के हमराह हैं। लेकिन उनके कहने का अंदाज अपना है। क़तील ने किसी प्लेटफार्म पर खड़े होकर मौलवी बनकर अपने चाहनेवालों को सम्बोधित नहीं किया बल्कि फ़र्श पर उनके साथ बैठकर मीठी-कड़वी बातें की हैं। न कभी गु़स्सा किया, न कभी मुक्का ताना, बल्कि दर्द को मुहब्बत की जु़बान देकर सच बयान किया। जो कुछ कहा अपने दिल की गवाही पर कहा। उन्होंने सीधे सादे लफ़्ज़ों में गहरी बातें कीं। शोर नहीं मचाया। धीमे सुर लगाए। इसलिए उनका नग़मा कभी बेसुरा नहीं होता। उन्होंने हलके रंगो का इस्तेमाल किया। इसलिए कोई नक़्श आँखों में खटकता नहीं। यही फ़न और शाख़्सियत उनकी नुमायाँ खू़बी है।

अवाम में क़तील साहब की ज़बरदस्त लोकप्रियता को देखते हुए सन 1994 में उन्हें पाकिस्तान का सबसे बड़ा अदबी अवार्ड प्राइड ऑफ परफार्मेंस दिया गया। इसके तहत 50 हजा़र रूपए और गोल्डमेडल दिया जाता है।

क्या यह अदबी अवार्ड क़तील साहब को विलंब से मिला ?
वे फरमाते हैं- मैंने कभी पुरस्कार के लिए सरकारी इदारे पर दबाव नहीं डाला। अपनी कोई लॉबी नहीं बनाई। यह पुरस्कार ऐसे लोगों को भी मिल चुका है, जो मौलिक शायर नहीं हैं। मुझे तो यह 20 साल पहले मिल जाना चाहिए था। अगर मैं इसे नहीं लेता तो सरकार बदनाम होती। मुल्क की इज़्ज़त रखने के लिए मैंने यह अवार्ड ले लिया। आदमी अवार्ड से नहीं काम से पहचाना जाता है। मैं आज भी शायरी का छात्र हूँ। मुझे और बेहतर लिखना है। बुलंदी की तरफ़ जाना है।

क्या पकिस्तान को यह बुरा नहीं लगता कि आप हिंदुस्तानी फिल्मों के लिए भी गीत लिखते हैं ?
क़तील साहब मुस्कराते हैं- बात प्यार से बनती है, नफ़रत से नहीं । दोनों मुल्कों में ऐसे भी लोग हैं जो नहीं चाहते कि हम पड़ोसी की तरह रहें। हमारी सरकार हिंदुस्तान से आलू खरीदती है। मैं गीत लिखता हूँ। दोनों दोस्ती की बात है। मैं प्यार में साथ हूँ,नफ़रत में नहीं।

कहा जाता है कि पाकिस्तान में जम्हूरियत (प्रजातंत्र) अब तक नहीं आई ?’

क़तील साहब के चेहरे से मायूसी छलकने लगी- पकिस्तान की आधी उम्र मार्शल लॉ की लानत में गुज़र गई। जम्हूरियत जब भी आती है लोग उसके टुकड़े कर देते हैं। जनता का काम प्रजातंत्र से ही चलेगा, फौ़जी ताक़त से नहीं। किसी भी मुल्क का जम्हूरियत के बिना गुजा़रा नहीं हो सकता। मुझे उम्मीद है कि एक दिन वहाँ भी जम्हूरियत आएगी़।

भारत और पकिस्तान में हमेशा विरोध की राजनीति क्यों चलती है ?
क़तील साहब के माथे पर सोच की शिकन पड़ गई- अब वो लीडर नहीं रहे जो मामला सुलझाएं। जिस नारे से कुर्सी मज़बूत रहती है, लीडर वही नारा लगाते हैं। मुझे उस दिन का इंतजा़र है जब दोनों देशों के दो नेता छोटे-मोटे झगड़े मिटाने के लिए एक-दूसरे की ओर हाथ बढ़ाएंगे। मेरी तमन्ना है कि मैं उस समय ज़िंदा रहूँ और दोनों नेताओं को हार पहनाऊँ।

दोनों देशों की अवाम एक दूसरे के ख़िलाफ़ नहीं हैं। सियासी लोगों को जिस वक़्त जो नारा सूट करता है वे वही लगाते हैं। पता नहीं कुछ लोगों को क्यों एक दूसरे के क़रीब आने में तकलीफ़ होती है। फा़यदा झगड़े में नहीं है, प्यार में है। फौ़जी साजो-सामान कम होगा तो वह पैसा जनता के काम आएगा। उससे विकास होगा। जर्मनी और जापान का उदाहरण हमारे सामने है। उन्होंने अपने काम से दुनिया का दिल जीता। कश्मीर का मसला तो आधी सदी पुराना हो गया। मैं रायशुमारी का विरोध नहीं करता, मगर वहाँ रायशुमारी तीन मुद्दों पर होनी चाहिए (1) क्या वे लोग भारत में रहना चाहते हैं ? (2) क्या वे लोग पकिस्तान में रहना चाहते हैं ? (3) क्या वे इन दोनों से अलग स्वतंत्र रहना चाहते हैं ?

क़तील साहब से मैंने उनसे एक तल्ख़ सवाल पू्छा- क्या पकिस्तान में कठमुल्लापन हावी है ?
हाँ! क़तील साहब ने स्वीकार किया। वहाँ इस्लाम के नाम का इस्तेमाल करके ज़िया साहब मुल्लाओं को अवाम के सिर पर तलवार की तरह लटका गए। जब वो दौर ख़त्म होगा, कट्टरपन और तानाशाही ख़त्म होगी, तो वहाँ इंसानियत वाला इस्लाम आएगा। जहाँ जम्हूरियत होगी, वहीं इस्लाम होगा । वहाँ मुल्लाओं वाला इस्लाम चल रहा है। मगर अंदर ही अंदर एक लावा भी खौल रहा है। इन्हें किसी दिन वह शिकस्त देगा। ज़िया साहब अपने फा़यदे के लिए मुल्लाओं को बहुत ताक़त दे गए हैं। मुल्लाओं में कुछ अच्छे लोग भी हैं, मगर उनकी संख्या आटे में नमक जितनी है। उनकी कोई सुनता नहीं। कट्टरपंथियों ने कु़रआन में से न जाने कैसी-कैसी चीज़ें ढूँढकर तानाशाही को इस्लाम सम्मत सिद्ध किया।

आपको हिंदुस्तान आकर कैसा लगता है ?
क़तील साहब के चेहरे पर मासूमियत छा जाती है- बहुत अच्छा लगता है। मैं यहाँ अपने ख़्याल के लोगों से मिलता हूँ। दोस्तों में रहता हूँ। उनका साथ बहुत अच्छा लगता है। मुझे तो वीसा भी पुलिस जाँच से मुक्त मिलता है, क्योंकि सबको इस सच्चाई का पता है-
उनका जो काम है वो अहले-सियासत जानें
मेरा पैगा़म मुहब्बत है जहाँ तक पहुंचे ...... ( जिगर )

-देवमणि पाण्डेय