Thursday, July 19, 2012

अपना तो मिले कोई : समीक्षा - अनिरूद्ध सिन्हा

शायर ज़फ़र गोरखपुरी की किताब 'मिट्टी को हँसाना है' का लोकार्पण। चित्र में डॉ.कलीम ज़िया, शायर अब्दुल अहद साज़,शायर देवमणि पाण्डेय, मरहूम कथाकार कृश्न चंदर की शरीके-हयात मोहतरमा सलमा सिद्दीक़ी, जाने-माने रंगकर्मी एवं फ़िल्म लेखक जावेद सिद्दीक़ी,शायर ज़फ़र गोरखपुरी,शायर ज़मीर काज़मी, वरिष्ठ पत्रकार लाजपत राय और बेबी फ़िज़ा (mumbai 26.05.2012)

अपना तो मिले कोई : समीक्षा - अनिरूद्ध सिन्हा
जीने का मज़ा आया टकराके ज़माने से

ग़ज़ल हिंन्दी काव्य-विधा की एक नई शाखा के रूप में विकसित हो चुकी है। कथ्य और शालीनता समान रूप से दिखाई पड़ती है। शालीनता का अभिप्राय है कहन की विनम्रता जो अभिव्यक्तियों के माध्यम से व्यक्त होती है और कहन के सहज प्रवाह को गतिशील रखती है। विनम्रता छंद और लय का पर्याय है। कविता विनम्रता या शालीनता के अभाव में खुरदुरी हो जाती है जिसे आम पाठक स्वीकार नहीं करता। लयविहीन कविता एक सुविधा है। सुविधा और कविता में कोई सामंजस्य नहीं है। ग़ज़ल में सुविधा की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

प्रगतिवाद और जनवाद के नाम पर कुछ तथाकथित कवियों ने हिन्दी कविता को सुविधाभोगी बना दिया जिसका दुखद अध्याय पठनीयता के संकट के नाम पर जुड़ने लगा और शोर भी वही लोग मचाने लगे जो कविता में सुविधा के पक्षघर थे।

हमारा पद्य साहित्य काफी प्राचीन है जो कथाओं और संवादों से आरंभ होता है। प्राचीन कथाओं और संवादों में आनंद है, रस है और सौंदर्य है। ग़ज़ल का इतिहास भी इससे अछूता नहीं है। लेकिन धीरे-धीरे इसके प्रगतिशील कहन की सोच भी अंगड़ाईयाँ लेती रही और सत्तर के दशक तक आते-आते यह खुलकर सामने आ गयी बिना कोई लेखकीय सुविधा प्राप्त किए। हिन्दी ग़ज़ल की यह यात्रा निरंतर जारी है। इस यात्रा को सफल और गतिशील बनाने में कई ग़ज़लकारों की महत्वपूर्ण भूमिका को इंकार नहीं किया जा सकता जिनमें से एक नाम देवमणि पांडेय का भी है।

देवमणि पांडेय की ग़ज़लें जीवन का पर्यवेक्षण कर हृदय की गहरी सामाजिक तहों से उत्पन्न होती हैं। उनकी ग़ज़लों में अनुभुति संकलित होती है जिससे पाठक गहरे सामाजिक कलात्मक उद्वेग का अनुभव करता है। यह कहन की सफलता है। वे समय की विद्रूपता के विरूद्ध खड़े होकर संवाद और प्रतिसंवाद करने से परहेज नहीं करते --
कुछ ऐसे बदनसीब भी हैं इस जहान में
मरने पे जिनके कोई भी मातम नहीं हुआ
रस्मों के बदलने की ज़िद मँहगी पड़ी फिर भी
जीने का मजा आया टकराके ज़माने से

साहित्य युग की वृत्ति है। एक बड़ा और पठनीय साहित्य युग की घटनाओं को दिशा प्रदान करने लगता है। बावजूद इसके इसकी अपनी सीमाएँ हैं। इसकी व्याख्या चेतना के तथ्यों, शुद्ध बुद्धि के विचारों के रूप में की जानी चाहिए।

देवमणि पांडेय अपनी ग़ज़लों के साथ न्याय करते हैं। आदर्शोन्मुख यथार्थ को बड़ी सूक्ष्मता के साथ पकड़ते हैं जिससे यथार्थ का खुरदुरापन प्रकट नहीं होता। आदर्श के सहारे यथार्थ को पूर्णता तक ले जाते हैं। ऊपर वर्णित शेर की सूक्ष्मता को देखें। किसी ऐसे आदमी की कल्पना करना कठिन होगा जिसकी मृत्यु पर मातम नहीं मनाया जाता। यह एक अस्पष्ट विश्वास है। जो  काफ़ी परेशान करता है। हम इसे सामाजिकता का प्रथम लक्ष्य भी मान सकते हैं। यह सामाजिकता का प्रथम लक्ष्य लेखन का मौलिक भाग है जिसके बिना लिखना कोरे यथार्थ का शोकगीत माना जाएगा।

'अपना तो मिले कोई' में संग्रहीत पूरी ग़ज़लों का स्केच तैयार किया जाए तो यह स्पष्ट हो  जाएगा कि समकालीन यथार्थ पर ग़ज़लकार की दृष्टि तो है ही लेकिन आस-पास के धुंधलके पर ज्य़ादा तीक्ष्ण है। यह समाज का पेचीदा चित्र है... किसी की मौत पर मातम का अकाल। इस  संकेत की व्याख्या हमें बौद्धिक गतिविधियों के परिणाम के रूप में नहीं करनी होगी। धुंधलके में छुपे उस व्यक्ति को बाहर लाना होगा जो मौत की दहलीज़ पर खड़े होकर मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है। देवमणि पांडेय का यह शेर कोरे यथार्थ-आदर्श की बैसाखी पर टंगा हुआ शव है जिसे पाठक देख भी सकता है और समझ भी सकता है। देवमणि पांडेय की ग़ज़लों की यात्रा यहीं पर आकर समाप्त नहीं होती  है जीवन और समाज के अन्य महत्वपूर्ण रहस्यों को भी  पकड़ती है और कहीं -कहीं विद्रोह भी करती है-

ऐसा नहीं कि रेत में होता नहीं है जल
मुट्ठी में लेके ज़ोर से उसको निचोड़िए

करें कोशिश अगर मिलकर तो नामुमकिन नहीं कुछ भी
पलट जाता है तख्ता ज़ुल्म का अकसर बगावत से

विद्रोह का पलायन हमें स्वयं से वंचित करता है। हमारा दायित्व है अपने संशिलिष्ट विवेक को व्यक्त करना। विद्रोह मनुष्य के लिए आवश्यक चीजों का निर्माण ही नहीं करता बल्कि एक सक्रिय सत्ता सामाजिक उत्कर्ष के रूप में मनुष्य का भी निर्माण करता है। साहित्य का असल उदेश्य ऊँची क़िस्म के लोगों को तैयार करना है जिसके साथ सामाजिक समरूपता भी आवश्यक रूप से जुड़ी हुई है। देवमणि पांडेय अपनी विचार-सत्ता को संवेदना के सहारे आगे लेकर चलते हैं जो उनकी ग़ज़लों को ताक़त देती है। ये ग़ज़लें यथार्थ के परिवेश में घुसकर उसकी कमियों पर प्रहार करती है और सामाजिक अनुभवों को विस्तारित करती हैं। इस दृष्टि सें 'अपना तो मिले कोई' की ग़ज़लों समाज के प्रति अपनी मुग्धता को व्यक्त करती हैं।

समीक्षा : अनिरूद्ध सिन्हा : गुलज़ार पोखर, मुंगेर, (बिहार) 811201, M : 094304-50098
ग़ज़ल संग्रह : अपना तो मिले कोई , शायर : देवमणि पाण्डेय, क़ीमत : 150 रूपए
प्रकाशक : अमृत प्रकाशन, 1/5170, बलबीर, गली नं.8, शाहदरा, दिल्ली-110032, फोन : 099680-60733

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