अपना तो मिले कोई के लोकाrर्पण समारोह में (बाएं से दाएं)- शायर यूसुफ़ दीवान, शायर ज़मीर
काज़मी, शायर देवमणि पांडेय, चित्रकार जैन कमल, शायर ज़फ़र गोरखपुरी, शायर हैदर नजमी, शायर नक़्श लायलपुरी, और शायर राम गोविंद 'अतहर'(मुम्बई
14.2.2012)
अपना तो मिले कोई : समीक्षा - अशोक अंजुम
इस शहर की
गलियों में अपना तो मिले कोई
देवमणि पाण्डेय की 100 बेहतरीन ग़ज़लों की नयी किताब है ‘अपना तो
मिले कोई’। इस किताब की ग़ज़लों के बारे में उर्दू के प्रसिध्द रचनाकार जनाब
अब्दुल अहद ‘साज़’ ने बड़ी बेबाकी से लिखा है कि ‘देवमणि पाण्डेय की
ग़ज़लों में जो कशिश है उसका कारण यह तो है ही कि वे उर्दू-हिन्दी के मिले-जुले
रचाव और सुभाव को लिए हुए हिन्दुस्तानी ग़ज़लें हैं, मगर इसके अलावा उनके
यहाँ शब्दों की तरतीब, लहजे की सफाई, सु्थराई
और अपनी बात को बिना ग़ैर ज़रुरी उलझन पैदा किये पाठक के दिलो-दिमाग़ तक पहुँचा
देने का सलीक़ा भी है…। निश्चित रुप से
जनाब साज़ की इस बात से इन ग़ज़लों से गुज़रने के बाद सहमत हुआ जा सकता है।
देवमणि पाण्डेय के काव्य-संग्रह ‘दिल की बातें’ और ‘खुशबू की
लकीरें’ के कई साल बाद ‘अपना तो मिले कोई’ ग़ज़ल संग्रह शाया
हुआ है। सो कोई जल्दबाजी यहाँ नहीं है। देवमणि पाण्डेय ने अपनी इन ग़ज़लों को
वक़्त की आँच पर एहसासात का ईंधन देकर रफ़्ता-रफ़्ता पकाया है। हर शख़्स कितनी ही ख़्वाहिशें
लेकर ज़िन्दगी जीता है। जब वे ख़्वाहिशें पूरी नहीं होतीं तो तक़लीफ होती है, अफ़सोस
होता है। देवमणि पाण्डेय अपनी पहली ही ग़ज़ल के मतले में अपनी ख़्वाहिश पूरी न
होने का दर्द बयाँ करते हैं मगर उनकी यह ख़्वाहिश व्यष्टि से समष्टि तक का सफ़र है
जो सबको रास आना चाहिए-
प्यासी
ज़मीं थी और मैं बादल नहीं हुआ
इक ख़्वाब
था मगर वो मुकम्मल
नहीं हुआ
देवमणि पाण्डेय आगे स्वीकारते हैं-
दिल ने
चाहा बहुत और मिला कुछ नहीं
ज़िन्दगी
हसरतों के सिवा कुछ नहीं
और ये कुछ न मिलने की तड़प, बेचैनी ही है जो किसी शायर
के क़द को उँचा रुतबा अता करती है ! जो हो- देवमणि पाण्डेय की शायरी मन को ख़ूब-ख़ूब
भिगोने की कुव्वत रखती है-
कल सपने
में कलियाँ महकी थीं तेरी मुसकानों की
नींद खुली
तो देख आँसू आँख भिगोने आए हैं
आज हिन्दी जगत ‘ग़ज़लकारों’ से लबरेज़ है। पाचँ में से
चार कवि ग़ज़लों पर हाथ आजमा रहे हैं, और इस आजमाइश में बहुत
कुछ ऐसा ढेर इकट्ठा हो रहा है जो ग़ज़ल के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ने वालों को
पर्याप्त छाती फुलाने का मौका़ देता है। ऐसे में जो ग़ज़लकार ग़ज़ल की अस्मिता को
न सिर्फ़ बचा रहे हैं बल्कि उसे अपने लहू से सींच भी रहे हैं, उनमें भाई देवमणि पाण्डेय का ज़िक्र किया जाना ज़रूरी हो जाता है। शायरी
में असर के लिए एक दर्द की ज़रुरत होती है। ये दर्द भी इस अन्दाज़ में कि ‘सारे जहाँ
का दर्द हमारे जिगर में है।’ यूँ कि हर पढ़ने-सुनने वालों को वह अपना-सा
लगे। देवमणि पाण्डेय के लफ़्जों में-
कितने
फ़नकारों अब तक जज़्बों को अल्फ़ाज़ दिए
अपने ग़म
का सरमाया ही शायर की पहचान हुआ
जहाँ तक भाषा की बात है तो जनाब अब्दुल अहद ‘साज़’ की बात को
ही आगे बढ़ाते हुए कहा जा सकता है कि देवमणि पाण्डेय की ग़ज़लों की ज़बान न ख़ालिस
उर्दू है और न संस्कृतनिष्ठ हिन्दी। हम इस ज़बान को हिन्दी और उर्दू के मेल से बनी
हिन्दुस्तानी ज़बान कह सकते हैं, जिसमें कि आज के वक़्त के ज्यादातर
सधे-मँझे ग़ज़लकार अपनी बात कह रहे हैं। इस भाषा की खा़सियत यह है कि इसके द्वारा
शेरों की सारी नक़्क़ाशी दिल की दीवारों पर उतरकर अपना जलवा बिखेरने लगती है !
देवमणि पाण्डेय के पास ग़ज़ल की तहज़ीब अपनी पूरी ख़ूबसूरती के साथ
सुरक्षित है। अत: आखिर में यही कहूँगा कि इनकी ग़ज़लों की खनक यहाँ-वहाँ, सारे
जहाँ में सुनाई दे। आखिर ये ग़ज़लें इसकी सच्ची ह़कदार
हैं! आमीन !
ग़ज़ल संग्रह : अपना तो मिले कोई , ग़ज़लकार : देवमणि पाण्डेय
प्रकाशक : अमृत प्रकाशन, 1/5170, बलवीर
नगर , गली नं. 8,
शाहदरा, दिल्ली- 32 , मो-099680-60733, मूल्य: 150 /-
समीक्षक: अशोक अंजुम, संपादक : अभिनव प्रयास, 615, ट्रक गेट, कासिमपुर
पावर हाउस, अलीगढ़-20212, मो. 092587-79744
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