Friday, April 27, 2012

अपना तो मिले कोई : समीक्षा - आर.पी.शर्मा ‘महर्षि’

 ,अपना तो मिले कोई के लोकार्पण समारोह में  (बाएं से दाएं)-  शायर ज़मीर काज़मी,  शायर देवमणि पांडेय, चित्रकार जैन कमल, शायर ज़फ़र गोरखपुरी, शायर हैदर नजमी, और शायर नक़्श लायलपुरी - मुम्बई 14.2.2012 

अपना तो मिले कोई : समीक्षा - आर.पी.शर्मा महर्षि
इक समंदर पी चुकूं और तिशनगी बाकी़ रहे
श्री देवमणि पाण्डेय का सद्य प्रकाशित ग़जल-संग्रह अपना तो मिले कोई पाकर ऐसा लगा जैसे अपना ही कोई मिल गया हो, संग्रह के नये प्रकार के खू़बसूरत आवरण, साज-सज्जा और साफ़ सुथरे कलात्मक मुद्रण ने आकृष्ट किया। सौ ताजा़तरीन ग़ज़ल-गुलाबों की साहित्य को यह एक अनुपम भेंट है। संग्रह के उपर्यु्क्त शीर्षक को पू्र्णतया चरितार्थ करता हुआ उनका निम्नांकित शेर उनकी हर्दिक मनोकामना के अनुरुप बहुत सटीक बन पडा़ है - 

इक फूल मुहबत का सहरा में खिले कोई
इस शहर की गलियों में अपना तो मिले कोई 

शहर की अजनबी भीड़ में किसी अपने के मिलने की तमन्ना सहरा में किसी फूल के खिलने जैसी ही है। अपनापन भाग्यशालियों को ही मिलता है, वरना- ''अपनत्व न मिल पाये, दुनिया में किसी को जब / वो उसके लिए कैसा, रह-रह के तरसता है'' - (महर्षि) 


यह दुनिया की भीड़ कुछ ऐसी भूलभुलइयां है जिस में चेहरे गुम हो जाते हैं। ऐसा न होने देने का एक मात्र उपाय जो देवमणि जी ने सुझाया है वह यह कि- 

इस दुनिया की भीड़ में इक दिन चेहरे गुम हो जाते हैं
रखनी है पहचान तो अपना चेहरा अपने पास रहे 

ग़ज़ल ने उन्हें एक व्यापक फलक प्रदान किया है जिसमें दुनिया-जहान को समेटा जा सकता है। सीप में सागर और कठौती में गंगा जैसी असाधारण कहावतों को चरितार्थ किया जा सकता है। सब से बड़ी ग़ज़ल की विशेषता है कि उसकी संगीतात्मकता जो अरस को भी सरस बना देती है। आज के रूखे-सूखे-खुरदरे विषय भी हरे-भरे और सुरुचिकर बन जाते हैं। देवमणि जी ने ग़ज़ल की इन विशेषताओं का अपने शेरों के सृजन में भरपूर लाभ उठाया है और उन्हें नये-नये आयाम और ज़ायके़ प्रदान किये हैं जो हमारा भरपूर रसास्वादन करने में सक्षम हैं। उनसे लुत्फंदोज़ हुआ जा सकता है। साथ ही उनमें समसामयिकता है तथा समय की माँग को पूरा करने की ज़िम्मेदारी भी। उनमें  ग़मे-दौरां भी है और ग़में-जानां भी। वे परंपरागत भी हैं और आधुनिक भी। उनमें सांसारिकता भी है और अध्यात्म भी। जीवनदर्शन भी है और फ़लसफ़ा भी। रंगीन ख़्वाब भी हैं और तल्ख़ हकी़क़तें भी। वे दुनिया की कटुताओं, विषमताओं, विद्रूपताओं आदि बुराइयों से उत्पन्न हलाहल को शंकर की तरह पी लेने का आहवान करते हुए कहते हैं- 

आओ कि हलचल को शंकर की तरह पी लें
लम्हों की ख़ताओं से, सदियों को बचाना है

 इसी ग़ज़ल का एक अन्य शेर भी द्रष्टव्य है- 

हालात की गर्दिश में उलझी हैं सभी खु़शियां
इस कै़द से खु़शियों को आज़ाद कराना है 



आज की यह सदी बदी की है, जु़ल्मो-इस्तबदाद की सदी है, जैसा कि देवमणि जी ने उसे प्रत्यक्ष देखा है और समझा है-

 जु़ल्म है, जु़ल्म की खुदाई है
ये सदी अब समझ में आई है 

उन्होंने मुहब्बत को एक नया आयाम देते हुए कहा है- 

बिन मुहब्बत के जी नहीं सकता
आदमी में यही बुराई है 

उनके इस संबंध में निम्नांकित अशआर भी बहुत सुरुचिपूर्ण बन पड़े हैं- 

मुहब्बत को मौसम ने आवाज़ दी
दिलों की पतंगें उडा़नों में हैं 

मेरी चाहत पे तुमने यक़ीं कर लिया
ये भरोसा मुहब्बत की बुनियाद है 

और ये उनका मुस्कराता-महकता हुआ शेर भी- 

तेरी तनहाइयाँ मुस्कराने लगीं
साथ तेरी महकती हुई याद है
उन्होंने मुहब्बत के विषय में जो कुछ भी कहा है बहुत शालीनता से कहा है, जिससे उनकी ग़ज़लों में पाकीज़गी आई है-। बक़ौल शाइर तजम्मुल शिफा़ई-शेर में इतनी तो हो पाकीज़गी / सर झुका दे ज़िंदगी अफ़्कार पर। 
श्री देवमणि ने अपनी ग़ज़लों के सृजन में, बहर और छंद, दोनों को ही बराबर का सम्मान दिया है तथा ग़ज़लों के लिए उनकी उपयुक्तता और महत्ता को समझा है। उदाहरर्णाथ,- बहरे-मुजतस में रचित उनकी एक ग़ज़ल का यह शेर- 

दिलों में आग तो आँखों में है नमी यारो
कभी ख़ुशी तो कभी ग़म है ज़िंदगी यारो

 यह बहर इस लिए है कि इस में मात्राएं गिराई गई हैं, जैसे-मैं, तो, में, तो, है’… गुरु वर्णों को लघु वर्ण करके छंदो-बद्ध किया गया है, जब कि छंदों में मात्राएं गिराना वर्जित है। उनकी निम्नलिखित पंक्तियां हिंदी के एक मात्रिक समछंद विष्णुपद में रचित हैं, प्रति चरण 16:10=26 मात्राएं- 

जब-जब भी मैं उसको सोचूं, जब-जब याद करुँ
सारा आलम महक रहा है, ऐसा लगता है 

संयोगवश इन पंक्तियों में मात्राएं नहीं गिराई गई हैं। यह छंद उर्दू में भी बहुत लोकप्रिय है और उर्दू नियमानुसार छंद में भी मात्रांए गिराने की खुली छूट है, क्योंकि ऐसा करने से भी संगीतात्मकता बाधित नहीं होती, बल्कि तरन्नुम और भी कर्णप्रिय हो जाता है जैसा कि ग़ज़लगायकी से स्वयं सिध्द है। 

देवमणि जी की ग़ज़लों की भाषा उर्दू-हिंदी मिश्रित (हिंदुस्तानी) है। भाषा सरल-सरस-प्रांजल है। ग़ज़लें सहज भाव से रचित हैं। शैली निजी एंव प्रभावशाली है।  

देवमणि जी को शायर ज़फ़र गोरखपुरी साहब ने ग़ज़ल का ताज़ाकार शायर और अब्दुल अहद साज साहब ने पुरख़ुलूस फ़नकार ठीक ही निरूपित किया है. बकौ़ल ज़फ़र साहब-उनकी ग़ज़लें आम हिंदी ग़ज़लों से हर सतह पर बड़ी हद तक मुख़्तलिफ़ हैं। उन्होंने अपनी ग़ज़ल की बुनत और तख़लीकी़ रवैयों में उर्दू से इस्तिफ़ादा किया है। 

अब्दुल अहद साज साहब के शब्दों में-देवमणि जी की भावनाएं, वेदनाएं और विचार तक़रीबन वही हैं जो उनके हमसफ़र रचनाकारों के हैं मगर ऍपरोच में फ़र्क़ है।  

देवमणि पाण्डेय जी का ग़ज़ल के क्षेत्र में यह पहला शतक है। आगे भी ऐसे ही शतक अपनी सशक्त लेखनी-रुपी बल्ले से लगाते रहेंगे ऐसी आशा है। उनका स्वंय भी यह कहना है- 

दिल में मेरे पल रही है ये तमन्ना आज भी
इक समंदर पी चुकूं और तिशनगी बाकी़ रहे 

इस अनूठी पेशकश के लिए उन्हें बहुत बहुत बधाई एवं मंगल कामनाएँ। सुधी पाठकों को उनका यह सद्प्रयास अवश्य ही पसंद आयेगा, ऐसा विश्वास है। 


समीक्ष आर.पी.शर्मा महर्षि’, 402- श्री राम निवास,टट्टा निवास हा.सोसा.,
पेस्तम सागर रोड न.3,चेम्बूर, मुंबई-400089, मो. 093215-45199

ग़ज़ल संग्रह : अपना तो मिले कोई , शायर : देवमणि पाण्डेय, क़ीमत : 150 रूपए

प्रकाशक : अमृत प्रकाशन ,1/5170, बलबीर, गली नं.8, शाहदरा,  
दिल्ली-110032,फोन : 099680-60733 / 011-2232 5468

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