Thursday, January 31, 2013

अपना तो मिले कोई : समीक्षा - रमेश यादव


अपना तो मिले कोई : समीक्षा - रमेश यादव
क़तरे में भी छुपा है समंदर तलाश कर
'अपना तो मिले कोई' शीर्षक से प्रकाशित देवमणि पाण्डेय के ग़ज़ल संग्रह में पाठकों के आस्वाद के लिए एक सौ ग़ज़लें हैं। इसके रचनाकार देवमणि पाण्डेय हिंदी और संस्कृत विषय में प्रथम श्रेणी में स्नातकोत्तर हैं। पुस्तक का कलेवर ही ऐसा आकर्षक है कि पुस्तक उठाकर उलटने-पलटने का मन होने लगता है। बस यह उलटना-पलटना ही पर्याप्त है पुस्तक की रचनाओं के मोहजाल में उलझ जाने के लिए।

ग़ज़ल की बनावट-बुनावट, शिल्प-विधान और व्याकरण से संबंधित लम्बे- लम्बे लेख और ग्रन्थ विद्वानों ने पहले ही इतने दिये हुए हैं कि अब तो बस इनती भर अपेक्षा पर्याप्त है कि इन समस्त मानदण्डों पर खरा उतरने के साथ-साथ रचनाकार को अपने सोच और बयान को भीड़ से अलग एक महत्वपूर्ण पहचान के रूप में स्थापित कर पाने की तमीज़ हासिल रहे। देवमणि पाण्डेय की ग़ज़लों से रू--रू होते हुए यह साफ़ नज़र आता है कि इस रचनाकार ने इस विधा में अपने आप को खूब घोंट-छानकर विशुद्धता हासिल की है।

इस ग़ज़ल संग्रह की सर्वप्रथम विशेषता उसकी भाषा है जो उर्दू अथवा हिन्दी-भाषी किसी भी पाठक या श्रोता को क्लिष्टता अथवा गरिष्ठता के व्यूह में उलझाती नहीं है। रचनाओं का जहाँ तक प्रश्न है, रचनाकार ने इन्सान के रोज़मर्रा की बारीकियों तथा बारीकियों की सुरूपताओं और विद्रूपताओं को महज़ महसूस ही नहीं किया, जिया भी है। इन्हीं प्रक्रियाओं के फलस्वरूप वह यह कह सकने का हकदार हुआ है कि -

जो मिल गया है, उससे भी बेहतर तलाश कर
क़तरे में भी छुपा है समंदर तलाश कर

तू है अगर मसीहा तो यह काम कर अभी
टूटे न जिससे शीशा, वो पत्थर तलाश कर

ज़िंदगी की विविधवर्णी विधाओं, भले ही वह रूमानियत हो, इन्सानों के आपसी रिश्ते या अरिश्ते हों, आसक्ति या विरक्ति हो, संगति या विसंगति हो, प्यास या तृप्ति हो, चोट या सहलाहट हो, व्यवस्था या अव्यवस्था हो, सभी में रचनाकार अपनी विशिष्ट कहन के द्वारा पाठक को बाँधकर रखता है। ज़िदगी के इन तमाम पहलुओं पर बोलते-बतियाते अश़आर पाठक को अदृश्य पर नज़रें टिकाये रहने पर मज़बूर कर देते हैं, उदाहरणार्थ -

कुछ युँ अकेले रहने की आदत सी पड़ गई
तुमसे बिछुड़ गये तो हमें ग़म नहीं हुआ

कहाँ गई हसास की खुशबू, फ़ना हुए ज़ज़्बात कहाँ
हम भी वहीं हैं,तुम भी वही हो, लेकिन अब वो बात कहाँ

मेरे दौर में भी हैं चाहत के क़िस्से
मगर मैं पुरानी मिसालों में गुम हूँ

जब तलक रतजगा नहीं चलता
इश्क क्या है, पता नहीं चलता

आदमी पूरा हुआ तो देवता हो जायेगा
ये ज़रूरी है कि उसमें कुछ कमी बाक़ी रहे

ऐसा कब सोचा था मैंने मौसम भी छल जायेगा
सावन-भादों की बारिश में मेरा घर जल जायेगा

मुमकिन है कि पानी में तुम आग लगा दोगे
अश्कों से लिखे ख़त को मुश्किल है जला देना

ज़िंदगी के इस सफ़र में तजरुबा हमको हुआ
साथ सब हैं,पर किसी को चाहता कोई नहीं

इस प्रकार देवमणि पांडेय का ग़ज़ल-संग्रह 'अपना तो मिले कोई' कसैलेपनों में मिठासों को जगाते सोच और ख़ुशबूदार हसास की जिल्दबंदी है, जो पाठक को आत्मानन्द से तर--तर करती दिखाई देती है।

समीक्षा : रमेश यादव  : कावेरी - 64, महेन्द्रा टाउनशिप - 1, - 8 एक्सटेंशन, गुलमोहर, भोपाल - 462039
मो.- 07869171892 / 09009230565
पुस्तक : अपना तो मिले कोई , शायर :    देवमणि पाण्डेय, मूल्य : रु. 150/-
प्रकाशक : अमृत प्रकाशन : 1/ 5170, बलबीरनगर, गली नं. 8, शाहदरा, दिल्ली -- 110032 ,  मो-099680-60733

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