अपना तो मिले कोई : समीक्षा - हिदायतउल्लाह
खान
इक समंदर पी चुकूँ और तिश्नगी बाक़ी रहे
कहते हैं अगर कोयले से पत्थर पर शेर लिख दिया जाय तो अपना असर दिखा देता
है, लेकिन बदलाव के इस दौर में किताबों के रंग-रूप पर ज़्यादा ध्यान दिया जाने लगा है और वो सब दिख रहा है जिससे किताबें
आज़ाद रहती आई हैं। मुंबई के शायर देवमणि पांडेय की नई किताब 'अपना तो मिले कोई' को जिस तरह से उसे पेश किया गया है,
ऐसा शायरी की किताबों में कम ही देखा गया है। ख़ासकर कवर पेज़। देव को
पता था कि सिर्फ़ रंग-रूप से काम नहीं चलेगा। इसलिए अंदर वो इतना
देने में कामयाब रहे है कि उनकी किताब को लाइब्रेरी में जगह दी जा सकती है। फिर उनके शेर दिमाग़ के
क़ैदख़ाने में भी जगह बना लेते हैं-
इस जहां में प्यार महके ज़िंदगी बाक़ी रहे
ये दुआ माँगो दिलों में रोशनी बाक़ी रहे
दिल में मेरे पल रही हैं, ये तमन्ना
आज भी
इक समंदर पी चुकूँ और तिश्नगी बाक़ी रहे
आदमी पूरा हुआ तो देवता हो जाएगा
ये ज़रूरी है कि उसमें कुछ कमी बाक़ी रहे
देवमणि पांडेय की ख़ूबी यह है कि वो हिंदी ग़ज़ल को उर्दू दुशाला ओढ़ाने
में कामयाब रहे हैं। उनके पास उर्दू अदब का हर फ़न मौजूद है, जिसका उन्होंने सलीक़े के साथ इस्तेमाल किया है और वो हिंदी-उर्दू के माँ-मौसी वाले रिश्ते को मज़बूत करते हैं। विषय
के साथ कहने का अंदाज भी सराहानीय है।
असल में सीखने के जो कारगर तरीके हैं, उनमें सोहबत अहम है और शुरू से ही देवमणि पांडेय को उस्ताद
शायर ज़फ़र गोरखपुरी का साथ मिला है, जिसका
असर उनकी किताब में भी दिखाई देता है और शयरी में भी । वैसे वे निदा फ़ाज़ली से भी दूर
नहीं हैं और यही वजह है कि वो सिर्फ़ शायरी नहीं कर रहे, फिल्मों में गीत भी लिख रहे
हैं। 'पिंजर' के गीत 'चरखा चलती माँ ' को इनाम मिल चुका है, इसका ज़िक्र किताब के पिछले कवर पर भी है।
देवमणि पांडेय ने सौ ग़ज़लों से किताब पूरी की है और सब जगह कुछ शेर ऐसे
मिलते हैं, जो आगे बढ़ाते हैं और किताब
मुकम्मल हो जाती है। देवमाणि पांडेय की शायरी में जहाँ ख़ुद्दारी का अहसास होता हैं,
वही वो रिश्तों को गूँथने में कामयाब हैं। ज़फ़र गोरखपूरी के अलावा शायर
अब्दुल अहद साज़ भी किताब का हिस्सा बने हैं। वे लिखते हैं - 'देवमणि पांडेय की ग़ज़लों में जो कशिश है, उसका कारण
उर्दू-हिंदी के मिले-जुले रचाव और सुभाव
को लिए हुए हिंदुस्तानी ग़ज़लें हैं, मगर इसके अलावा उनके यहाँ
शब्दों की तरतीब, लहजे की सफाई-सुथराई और
अपनी बात को बिना ग़ैर ज़रूरी उलझन पैदा किए पाठक के दिलो-दिमाग़
तक पहुँचा देने का सलीक़ा भी है।' इसकी वजह से बात आसानी से पढ़ने वालों के ज़हन तक पहुँच जाती है। इस किताब
पर सिर्फ़ दो शायरों ने
लिखा है, पर वो इतना है कि किसी और तहरीर की ज़रूरत नहीं हैं।
ज़फ़र साहब लिखते हैं कि देवमणि पांडेय की ग़ज़लें आम हिंदी ग़ज़लों से हर सतह पर बड़ी
हद तक मुख़्तलिफ़ हैं। उन्होंने अपनी ग़ज़ल की बुनत और तख़लीक़ी रवैयों में उर्दू से इस्तिफ़ादा
किया है। वो नई नस्ल के ग़ज़लकारों में ऐसे नौजवान ग़ज़लकार हैं, जिन्होंने हिंदी और उर्दू के अटूट रिश्ते से फ़ैज़ उठाया है और ज़फ़र साहब इसे
मुबारक अमल भी लिख रहे हैं। उन्होंने देव के कुछ शेर भी क़लम किए
है --
तन्हाई की क़ैद से
ख़ुद को रिहा करो बाहर निकलो
हो सकता है भर वे कोई दिल का जख्म पुराना भी
मुमकिन हो तो खिड़की से ही रोशन कर लो घर-आँगन
इतने चांद-सितारे
लेकर फिर आएगी रात कहाँ
कितने फ़नकारों ने अब तक जज़्बों को अलफाज़ दिए
अपने गम का सरमाया ही शायर की पहचान हुआ
देवमणि पांडेय की इस किताब की कीमत डेढ़ सौ रूपए है और इसे तरतीब हैदर
नजमी ने दिया है। इससे पहले उनकी किताब 'खुशबू
की लकीरें' भी आ चुकी है। कुल मिलाकर देवमणि पांडेय का यह गुलदस्ता
ख़ुशबू देने में कामयाब है और उनके ज़रिये हिंदी-उर्दू ग़ज़ल के
बीच जो रिश्ता मज़बूत
हो रहा है, वो इस किताब का असल सरमाया है।
समीक्षा : हिदायतउल्लाह
खान : (सह सम्पादक:रविवार), 210
कारपोरेट हाउस
बी ब्लॉक, द्वितीय
मंज़िल, 169 आरएनटी मार्ग, इंदौर
(म.प्र.)-452 001, फोन:
93021-26777
ग़ज़ल संग्रह : अपना
तो मिले कोई , शायर : देवमणि पाण्डेय, क़ीमत
: 150 रूपए
प्रकाशक : अमृत प्रकाशन, 1/5170, बलबीर, गली नं.8,
शाहदरा, दिल्ली-110032, फोन
: 099680-60733
No comments:
Post a Comment